भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
जी हां यह बात सच है कि स्वतंत्रता के बाद भारत में औद्योगीकरण की शुरुआत ने शहरीकरण को गति दी, पर यह विकास असमान रहा। प्रारंभिक दशकों में विकास केवल कुछ आर्थिक केंद्रों तक सीमित रहा। लेकिन वर्तमान में उदारीकरण और वैश्वीकरण की लहर ने शहरी क्षेत्रों को न केवल आर्थिक केंद्रों में बदला है, बल्कि इन्हें क्षेत्रीय विकास के इंजन के रूप में भी स्थापित किया है। वर्ष 2024 के केंद्रीय बजट में शहरी समूहों को 'विकास केंद्र' घोषित किया गया, जिससे "सिटी ऐज़ ग्रोथ हब" की अवधारणा को मान्यता मिली। परंतु इस विकास पथ में स्थिरता, समावेशन और जलवायु-संवेदनशीलता जैसी चुनौतियाँ भी हैं। आइये समझते हैं कि क्षेत्रीय विकास में भारतीय शहरों की भूमिका के बारे में । दिल्ली-एनसीआर और बेंगलुरु जैसे महानगरों के परिधीय क्षेत्रों में आर्थिक गतिविधियाँ तीव्र हुई हैं। नोएडा, ग्रेटर नोएडा, गुड़गांव जैसे उपग्रह शहर औद्योगिक और तकनीकी हब बनकर उभरे हैं। ये न केवल रोजगार के अवसर बढ़ा रहे हैं बल्कि छोटे शहरों को भी आर्थिक रूप से सशक्त बना रहे हैं। पुणे, हैदराबाद और चेन्नई जैसे शहर ज्ञान-आधारित विकास के केंद्र बन चुके हैं। हैदराबाद की जीनोम वैली जैसी जैव प्रौद्योगिकी हब से लेकर पुणे के शोध संस्थानों तक, भारत में शहरी ज्ञान केंद्रों की एक समृद्ध श्रृंखला बन चुकी है। बेंगलुरु, दिल्ली, मुंबई और हैदराबाद जैसे शहर भारत के सेवा क्षेत्र की रीढ़ हैं। IT, वित्त, स्वास्थ्य सेवा और ई-कॉमर्स में प्रगति के चलते ये शहर कुशल एवं अकुशल दोनों प्रकार की जनशक्ति के लिए आकर्षण केंद्र बन गए हैं। बेंगलुरु अकेले ही भारत के तकनीकी निर्यात में 150 बिलियन डॉलर का योगदान देता है। पुणे, अहमदाबाद, कोच्चि और चेन्नई जैसे शहरों में मेट्रो परियोजनाओं, स्मार्ट सड़क नेटवर्क और इंटर-सिटी एक्सप्रेसवे ने क्षेत्रीय कनेक्टिविटी को बेहतर किया है। दिल्ली-मुंबई एक्सप्रेसवे जैसे प्रोजेक्ट आर्थिक क्षेत्रों को जोड़ने में क्रांतिकारी साबित हो सकते हैं। हरित भवन, वर्षा जल संचयन, अपशिष्ट से ऊर्जा परियोजनाएँ और स्मार्ट मीटरिंग जैसी पहलें शहरों को जलवायु-संवेदनशील और टिकाऊ बनाने की दिशा में सराहनीय कदम हैं। स्मार्ट सिटी मिशन के तहत 100 शहरों में हरित नियोजन को प्राथमिकता दी गई है। मुंबई, दिल्ली और हैदराबाद जैसे शहरों में रियल एस्टेट निवेश में तेज़ी आई है। वर्ष 2024 में रियल एस्टेट में संस्थागत निवेश 6.5 बिलियन डॉलर को पार कर गया। रेरा और जीएसटी जैसे सुधारों ने इस क्षेत्र को पारदर्शी और निवेशक-मैत्री बनाया है। अमृत योजना, स्मार्ट सिटी मिशन और ट्रांजिट-ओरिएंटेड डेवलपमेंट नीति ने शहरों में आवास, जलापूर्ति, स्वच्छता और सार्वजनिक परिवहन में सुधार किया है। इससे वाराणसी, भोपाल, भुवनेश्वर जैसे शहरों में जीवन गुणवत्ता में बदलाव आया है। दूसरी ओर कई चुनौतियाँ और असमानता की बाधाएँ भी देखने को मिलती हैं जैसे शहरों की तेज़ी से बढ़ती आबादी को बुनियादी सुविधाओं की पर्याप्त उपलब्धता नहीं है। वर्ष 2031 तक भारत की शहरी आबादी 60 करोड़ तक पहुँचने का अनुमान है, जबकि वर्तमान निवेश ज़रूरत का केवल 30% ही पूरा कर पा रहा है। दिल्ली, पटना, लखनऊ और कोलकाता जैसे शहर लगातार विश्व के सबसे प्रदूषित शहरों में शुमार हैं। बर्नीहाट (मेघालय) 2024 में विश्व का सबसे प्रदूषित शहरी क्षेत्र रहा। कड़े पर्यावरणीय कानूनों की अनुपस्थिति और कमजोर प्रवर्तन इस संकट को और गहरा कर रहे हैं। तेज़ शहरीकरण के साथ आवास की मांग भी बढ़ी है, परंतु आपूर्ति काफी पीछे है। प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत 1.12 करोड़ घरों का लक्ष्य था, लेकिन केवल 60.5 लाख ही बन पाए। 65 मिलियन से अधिक लोग अभी भी झुग्गियों में रहते हैं। बेंगलुरु, चेन्नई और दिल्ली जैसे शहर गंभीर जल संकट झेल रहे हैं। भूजल का अत्यधिक दोहन, प्रदूषित जल स्रोत और पाइपलाइन रिसाव इस संकट को बढ़ा रहे हैं। वर्ष 2030 तक भारत की जल मांग उपलब्ध जल से दोगुनी हो सकती है। मेट्रो प्रोजेक्ट्स के बावजूद, सार्वजनिक परिवहन की पहुंच और सुविधा सीमित है। निजी वाहनों की बढ़ती संख्या से ट्रैफिक जाम सामान्य हो गया है। वर्ष 2021 में मुंबई का कंजेशन स्तर 53% था, जो उत्पादकता को सीधे प्रभावित करता है। प्रति दिन लाखों टन ठोस अपशिष्ट का उत्पादन होता है, परंतु इसकी प्रोसेसिंग और रिसाइक्लिंग की क्षमता बेहद कम है। दिल्ली में प्रतिदिन 10,000 टन कचरा उत्पन्न होता है, जिसमें से अधिकांश बिना पृथक्करण के लैंडफिल में फेंका जाता है। यह भी सच है कि जलवायु कार्रवाई के लिये समाधान और प्रयास किये जा सकते हैं। हर शहर में हरित भवन को अनिवार्य करना, अपशिष्ट जल का पुन: उपयोग, और अपशिष्ट से ऊर्जा उत्पाद परियोजनाओं को बढ़ावा देना।रूफटॉप सोलर, स्मार्ट ग्रिड और ऊर्जा दक्ष उपकरणों को प्राथमिकता देना। बंजर भूमि पर हरियाली परियोजनाएँ शुरू करना, जैसे दिल्ली में "मिनी जंगल" योजना।वर्षा जल संचयन, रिचार्ज वेल्स और पाइपलाइन रिसाव नियंत्रण को प्राथमिकता देना।जागरूकता, जनभागीदारी और नागरिक विज्ञान के माध्यम से स्थानीय स्तर पर समाधान लागू करना। अंत में कह सकते हैं कि भारत के शहर अब केवल रहने और काम करने की जगह नहीं हैं, बल्कि वे आर्थिक विकास, सामाजिक समावेशन और जलवायु कार्रवाई के प्रमुख केंद्र बन चुके हैं। हालांकि चुनौतियाँ बड़ी हैं, परन्तु योजनाबद्ध नीति, हरित निवेश, तकनीकी नवाचार और जनभागीदारी के माध्यम से शहरों को सतत् और समावेशी बनाया जा सकता है। यदि भारत को समावेशी और स्थायी विकास का लक्ष्य हासिल करना है, तो शहरी सुधारों में पारदर्शिता, दक्षता और जवाबदेही को केंद्र में रखना होगा।