भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
जी हां यह बात सौलह आने सच है कि भारत की जनसंख्या का एक महत्वपूर्ण हिस्सा जनजातीय समुदायों से जुड़ा है, जो देश की सांस्कृतिक, पर्यावरणीय और सामाजिक संरचना में गहराई से रचे-बसे हैं। भारत सरकार द्वारा समय-समय पर जनजातीय विकास के लिये नीतियाँ और कार्यक्रम तो बनाए गए, किंतु वास्तविक धरातल पर इन समुदायों की स्थिति आज भी चिंता का विषय बनी हुई है। यदि भारत को समग्र और समावेशी विकास की दिशा में आगे बढ़ना है, तो इसके लिए जनजातीय उत्थान अनिवार्य है। 2005 में माओवादी विद्रोह से निपटने के लिए भारत सरकार की ‘रणनीतिक बस्ती’ योजना के तहत छत्तीसगढ़ के हजारों गोंड जनजातियों को उनके पैतृक स्थानों से विस्थापित कर दिया गया। लगभग दो दशक बीतने के बाद भी ये परिवार न तो अपने मूल स्थान लौट सके हैं और न ही उन्हें नए राज्यों में जनजातीय दर्जा प्राप्त हो सका है। यह केवल एक उदाहरण है, जो दर्शाता है कि देश भर में जनजातीय समुदायों को किस प्रकार की प्रशासनिक अनिश्चितता, आर्थिक अस्थिरता और सांस्कृतिक विच्छेदन का सामना करना पड़ रहा है।आइये विस्तार से समझते हैं भारत की विकास यात्रा में जनजातियों की भूमिका के बारे में। भारत की सांस्कृतिक विविधता में जनजातीय समुदायों का अमूल्य योगदान रहा है। गोंड, भील, संथाल, वारली जैसी जनजातियाँ लोककथाओं, पारंपरिक नृत्य, संगीत और चित्रकला में न केवल दक्ष हैं, बल्कि इन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी संरक्षित भी कर रही हैं। वारली चित्रकला आधुनिकता की लहर में भी अपनी पहचान बनाए रखी है।गोंड कला को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सराहा जा रहा है। जनजातीय समुदायों का जीवन प्रकृति के साथ सामंजस्य पर आधारित होता है। उनकी पारंपरिक ज्ञान प्रणालियाँ जैव विविधता और पर्यावरण की रक्षा में सहायक रही हैं।डोंगरिया कोंध जनजाति ने ओडिशा की नियमगिरि पहाड़ियों को बॉक्साइट खनन से बचाया।बस्तर की जनजातियों ने खनन और वनों की कटाई के खिलाफ आवाज उठाई है। झारखंड की मुंडा जनजाति, ओडिशा की संथाल जनजाति जैसे समूह मिश्रित फसल प्रणाली, पारंपरिक बीज और प्राकृतिक खाद का उपयोग कर संधारणीय कृषि को बढ़ावा देते हैं।इनकी तकनीकें जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को सहन कर पाने में भी मददगार हैं।जनजातीय समुदायों की हस्तशिल्प, वस्त्र, हर्बल दवाएँ और अन्य पारंपरिक उत्पाद वैश्विक बाज़ार में पहचान बना रहे हैं।इससे आत्मनिर्भरता और स्थानीय आर्थिक सशक्तिकरण को बल मिला है।उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में विस्थापित जनजातियों ने सुरक्षा बलों को स्थानीय जानकारी और समर्थन देकर माओवादी प्रभाव को कम करने में सहायता की है।छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में जनजातीय युवाओं की सुरक्षा बलों में भर्ती एक सकारात्मक संकेत है। इस में कोई दो राय नहीं हैं कि जनजातीय समुदायों के समक्ष कई चुनौतियाँ होती हैं । जनजातियों की आजीविका और सांस्कृतिक पहचान उनकी पैतृक भूमि से जुड़ी होती है, किंतु औद्योगीकरण और विकास परियोजनाओं ने उन्हें बार-बार उजाड़ा है।ओडिशा और छत्तीसगढ़ में खनन परियोजनाओं ने लाखों जनजातियों को विस्थापित किया।कोया जनजाति अपनी ही भूमि में मजदूर बन गई है।जनजातीय युवाओं को अभी भी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और कौशल प्रशिक्षण उपलब्ध नहीं हो पा रहा है।इ एम आर एस जैसे स्कूलों की पहल सराहनीय है, किंतु उनमें ड्रॉपआउट दर उच्च बनी हुई है।जनजातीय महिलाओं में एनीमिया का स्तर 64% तक पहुँच गया है।पाँच वर्ष से कम उम्र के 40% से अधिक बच्चे कुपोषण के शिकार हैं।जनजातियों को वनों से प्राप्त संसाधनों के उचित मूल्य नहीं मिलते, जिससे वे गरीबी के चक्र में फँसे रहते हैं।झारखंड, ओडिशा और मध्यप्रदेश में खनन उद्योगों में जनजातीय श्रमिकों का शोषण आम है।शहरीकरण और मुख्यधारा की संस्कृति के प्रभाव में पारंपरिक कलाएँ, भाषाएँ और त्योहार धीरे-धीरे विलुप्त हो रहे हैं।वन अधिकार अधिनियम के बावजूद अधिकांश राज्यों में इसके क्रियान्वयन में लापरवाही बरती गई है।गुजरात सरकार ने 40% से अधिक दावों को खारिज कर दिया। साक्ष्य की सूची के बिना निर्णय लेना न्यायसंगत नहीं।सरकार इन चुनौतियों के मद्देनजर कई उपाय कर रही है और नीतियां भी बना रही है। इस अधिनियम ने जनजातियों को उनके पारंपरिक वन भूमि पर अधिकार प्रदान करने का प्रावधान किया, लेकिन व्यवहार में कई समस्याएँ सामने आई हैं।पंचायतों को जनजातीय क्षेत्रों में स्वशासन का अधिकार प्रदान करता है, लेकिन राज्य सरकारों की अनिच्छा इसके कार्यान्वयन में बाधा बनी हुई है।जनजातीय छात्रों के लिये आवासीय शिक्षा की सुविधा प्रदान करने हेतु स्थापित विद्यालय।जनजातीय उत्पादों के विपणन और प्रसंस्करण हेतु वित्तीय एवं तकनीकी सहायता।15 नवंबर को भगवान बिरसा मुंडा के सम्मान में जनजातीय गौरव दिवस मनाया जाता है। इससे जनजातीय इतिहास को राष्ट्रीय पहचान मिली है।विस्थापित जनजातियों को उनके नए राज्यों में जनजातीय दर्जा प्रदान करना अनिवार्य है, ताकि उन्हें सभी सरकारी लाभ मिल सकें।जनजातीय बच्चों के लिए उनकी मातृभाषा में शिक्षा की सुविधा और स्थानीय संदर्भों में पाठ्यक्रम आवश्यक है।पोषण मिशन में जनजातीय क्षेत्रों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।मोबाइल हेल्थ यूनिट्स और जनजातीय स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का नेटवर्क सुदृढ़ किया जाए।पी ई एस ए को जमीनी स्तर पर लागू कर स्वराज की अवधारणा को साकार किया जाए।वनों से प्राप्त संसाधनों का स्वामित्व अधिकार जनजातीय समुदायों को देकर उनके जीवन-यापन को सुरक्षित किया जाए।जनजातीय युवाओं को डिजिटल इंडिया और स्टार्टअप इंडिया जैसी योजनाओं से जोड़ा जाना चाहिए। अंत में कह सकते हैं कि भारत के समग्र विकास की यात्रा तब तक अधूरी रहेगी, जब तक हमारे वनवासी भाइयों को समान अवसर, अधिकार और पहचान नहीं मिलती। जनजातीय समुदाय केवल संरक्षण के पात्र नहीं, बल्कि विकास के सक्रिय साझेदार हैं। उनकी सांस्कृतिक विविधता, पर्यावरणीय जागरूकता और सामाजिक संरचना भारत को एक स्थायी और समावेशी राष्ट्र बनाने में मदद करती है। यह आवश्यक है कि नीति निर्माताओं, समाज और मीडिया का ध्यान इस दिशा में केंद्रित हो, ताकि जनजातीय उत्थान केवल सरकारी रिपोर्टों तक सीमित न रहे, बल्कि वह एक सामाजिक क्रांति के रूप में साकार हो।