भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
यह बात सच है कि "जब जब इंसान प्रकृति के साथ खिलवाड़ करता है, तो प्रकृति उसे समय पर चेतावनी देती है।" यह वाक्य अब सिर्फ एक कहावत नहीं, बल्कि विज्ञान द्वारा सिद्ध एक गंभीर सच्चाई बन चुका है। हाल ही में सामने आई एक अंतरराष्ट्रीय शोध रिपोर्ट ने पूरी दुनिया को चौंका दिया है, जिसमें बताया गया है कि भारत द्वारा किए जा रहे भूजल के अत्यधिक दोहन के कारण पृथ्वी की धुरी में स्पष्ट खिसकाव आया है। यह न सिर्फ भौगोलिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि भविष्य में आने वाले जलवायु संकट का संकेत भी है। आइये गौर करते हैं वैज्ञानिक अध्ययन और चौंकाने वाले निष्कर्ष पर। 2023 में प्रकाशित एक महत्वपूर्ण शोधपत्र, जो जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित हुआ, उसमें बताया गया कि वर्ष 1993 से 2010 के बीच पृथ्वी की ध्रुवीय स्थिति में जो खिसकाव हुआ, उसमें अकेले भारत का भूजल दोहन 12.5 सेंटीमीटर के झुकाव के लिए ज़िम्मेदार रहा। वैज्ञानिकों ने इस अध्ययन में ग्रेविटी रिकवरी एंड क्लाइमेट एक्सपेरिमेंट सैटेलाइट से मिले आंकड़ों का उपयोग किया। इन आंकड़ों से यह पता चला कि कैसे विभिन्न देशों में भूमिगत जल के अंधाधुंध दोहन से पृथ्वी के घूर्णन अक्ष में परिवर्तन आया। पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है और यह धुरी स्थिर नहीं होती। यह बहुत धीमी गति से एक दिशा से दूसरी दिशा में झुकती रहती है। इसे पोलर वॉबलिंग कहा जाता है। परंतु प्राकृतिक प्रक्रियाओं के अतिरिक्त अब मानवीय गतिविधियां – विशेषकर भूजल दोहन – इस झुकाव को अप्राकृतिक और असंतुलित गति देने लगी हैं। जब भूजल को अत्यधिक मात्रा में निकाला जाता है, तो पृथ्वी की सतह पर जल का वितरण बदलता है। इसका सीधा प्रभाव पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण केंद्र और घूर्णन अक्ष पर पड़ता है। भारत, जो विश्व का दूसरा सबसे बड़ा भूजल उपभोगकर्ता है, इस असंतुलन में सबसे आगे है। भारत में भूजल दोहन की स्थिति पर गौर करें तो पायेंगे कि भारत की कृषि व्यवस्था मुख्यतः सिंचाई पर निर्भर है, और इसमें 60% से अधिक हिस्सेदारी भूजल स्रोतों की है। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्य, जिनमें हरित क्रांति की जड़ें मजबूत हैं, भूजल दोहन में अग्रणी हैं। आंकड़े बताते हैं कि भारत हर साल लगभग 251 घन किलोमीटर भूजल का दोहन करता है, जो कि अमेरिका और चीन दोनों को मिलाकर किए गए भूजल दोहन से भी अधिक है। भूजल दोहन के प्रमुख कारणों में किसानों को मुफ्त या रियायती दरों पर बिजली मिलने से ट्यूबवेल और मोटर पंपों के माध्यम से जल दोहन तेज़ी से होता है। धान और गन्ने जैसी अधिक जल-आवश्यकता वाली फसलों की अत्यधिक खेती। वर्षा जल संचयन की कमी और पारंपरिक जल स्रोतों की उपेक्षा।जल प्रबंधन में असमानता और नीतिगत विफलताएं। ग्रेस मिशन द्वारा किए गए सर्वे में यह स्पष्ट हुआ कि वैश्विक रूप से भूजल की असंतुलित निकासी ने पृथ्वी की धुरी में खिसकाव को तेज किया है। परंतु सबसे गंभीर योगदान भारत से रहा है। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर इसी तरह से भूजल का अत्यधिक दोहन जारी रहा, तो आने वाले दशकों में:पृथ्वी की ध्रुवीय स्थिति में और भी बड़ा बदलाव हो सकता है।मौसम चक्रों में असामान्य परिवर्तन देखने को मिल सकते हैं।जलवायु असंतुलन बढ़ेगा, जिससे बाढ़, सूखा और ग्लेशियर पिघलने की घटनाएं बढ़ सकती हैं।वैश्विक समुद्री जलस्तर पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा। यह भी सच है कि भारत पहले से ही जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से जूझ रहा है। साल 2023 में भारत मौसम विभाग ने बताया कि भारत में सामान्य से अधिक गर्मी और असमय बारिश की घटनाएं बढ़ रही हैं। इसका एक कारण भूजल स्तर में गिरावट और पर्यावरणीय असंतुलन है। नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत के 21 शहरों का भूजल 2030 तक समाप्त हो सकता है, जिससे 10 करोड़ से अधिक लोगों पर जल संकट का खतरा मंडराने लगेगा। भारत इस समस्या से निबटने के लिए कई उपाय कर सकता है जैसे गांवों और शहरों में वर्षा जल संचयन को अनिवार्य बनाया जाए। पारंपरिक कुएं, तालाब, बावड़ियां आदि को पुनर्जीवित कर स्थानीय जल संरक्षण को बढ़ावा दिया जाए। ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई जैसी आधुनिक तकनीकों से जल की बर्बादी को रोका जा सकता है। इस पर सब्सिडी और प्रशिक्षण ज़रूरी है।पानी की कम खपत वाली फसलों जैसे बाजरा, ज्वार, दालें आदि को बढ़ावा देकर धान और गन्ने पर निर्भरता कम की जा सकती है।भूजल दोहन को नियंत्रित करने के लिए राज्य स्तर पर सख्त कानून बनाए जाएं। ट्यूबवेल लगवाने के लिए अनुमति प्रणाली को मजबूत किया जाए। लोगों को जल संकट की गंभीरता, जल बचत की तकनीकों और भविष्य की चेतावनियों के प्रति संवेदनशील बनाना अनिवार्य है। भारतीय वैज्ञानिकों ने भी इस वैश्विक अध्ययन पर अपनी प्रतिक्रिया दी है। आईआईटी खड़गपुर, आईआईएससी बेंगलुरु और एन आई एच रुड़की जैसे संस्थानों ने चेतावनी दी है कि यदि हम अभी भी चेतकर जल प्रबंधन की दिशा में ठोस कदम नहीं उठाते, तो आने वाली पीढ़ियों के लिए एक अस्थिर और संकटग्रस्त पृथ्वी छोड़ जाएंगे। जलवायु परिवर्तन, पृथ्वी की धुरी में खिसकाव और वैश्विक पर्यावरणीय संकट अब सिर्फ एक देश का मुद्दा नहीं रहा। संयुक्त राष्ट्र और आई पी सी सी जैसी संस्थाएं बार-बार चेतावनी दे रही हैं कि अगर भारत जैसे देश अपने जल उपयोग पैटर्न को नहीं बदलते, तो वैश्विक जलवायु व्यवस्था पूरी तरह से असंतुलित हो सकती है। भारत को न सिर्फ घरेलू स्तर पर, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी जल प्रबंधन के लिए एक उदाहरण बनना होगा। ‘मिशन अमृत सरोवर’, ‘जल जीवन मिशन’ जैसे कार्यक्रमों को अधिक गंभीरता और पारदर्शिता से लागू करना अब वक्त की मांग है।अंत में कह सकते हैं कि भारत का भूजल दोहन अब सिर्फ एक स्थानीय या राष्ट्रीय मुद्दा नहीं रहा। यह पृथ्वी की धुरी को प्रभावित करने वाला वैश्विक संकट बन चुका है। जरूरत है, एक ऐसे जल-नीति परिवर्तन की जो सिर्फ आंकड़ों पर नहीं, बल्कि धरातल पर प्रभावी बदलाव ला सके।