भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
जी हां यह बात सौलह आने सच है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में संवैधानिक प्रमुखों जैसे राष्ट्रपति और राज्यपालों की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है। ये पदाधिकारी न केवल विधायी प्रक्रियाओं में एक निर्णायक भूमिका निभाते हैं, बल्कि संविधान की मर्यादाओं के भीतर शासन व्यवस्था को संतुलित रखने में भी सहायक होते हैं। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया एक ऐतिहासिक निर्णय, जिसमें राष्ट्रपति और राज्यपालों को विधेयकों पर 'उचित समय' में कार्रवाई करने का निर्देश दिया गया, ने एक महत्वपूर्ण बहस को जन्म दिया है। इस निर्णय ने न केवल विधायी प्रक्रियाओं की पारदर्शिता को बढ़ावा दिया है, बल्कि संवैधानिक पदाधिकारियों की जवाबदेही को भी स्पष्ट रूप से रेखांकित किया है। याद रहे तमिलनाडु राज्य बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल के केस में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि राज्यपाल द्वारा विधेयकों पर अनिश्चितकालीन विलंब करना संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन है। मामला इस प्रकार शुरू हुआ कि राज्यपाल ने तमिलनाडु विधानसभा द्वारा पारित 10 विधेयकों पर स्वीकृति रोक दी थी। इन विधेयकों को दोबारा पारित कर राज्यपाल को भेजा गया, लेकिन उन्होंने न तो उन्हें स्वीकृत किया और न ही कोई टिप्पणी के साथ वापस भेजा, बल्कि सीधे राष्ट्रपति को भेज दिया। इसे राज्य सरकार ने शासन में बाधा मानते हुए सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के पास 'पूर्ण वीटो' या 'पॉकेट वीटो' की कोई व्यवस्था नहीं है। राज्यपाल विधेयकों पर अनिश्चितकालीन चुप्पी नहीं साध सकते। उन्हें मंत्रिपरिषद की सलाह माननी आवश्यक है। यह सच है कि न्यायालय ने स्पष्ट समय-सीमाएं तय कीं हैं। सामान्य विधेयकों पर निर्णय के लिए एक माह, यदि राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह के विरुद्ध निर्णय लेना चाहते हैं, तो तीन माह, पुनर्विचार के लिए लौटाए गए और पुनः पारित विधेयकों पर एक माह। राष्ट्रपति की भूमिका पर भी न्यायालय ने टिप्पणी की। अनुच्छेद 201 के तहत, राष्ट्रपति भी अनिश्चितकाल तक विधेयक को लंबित नहीं रख सकते। निर्णय तीन महीने के भीतर लिया जाना चाहिए। विलंब होने की स्थिति में राज्य सरकार को सूचित करना अनिवार्य है। न्यायालय ने यह भी कहा कि यदि कोई विधेयक असंवैधानिक प्रतीत होता है, तो राष्ट्रपति को अनुच्छेद 143 के तहत सर्वोच्च न्यायालय से राय लेनी चाहिए। यह भी सच है कि यह निर्णय कई महत्त्वपूर्ण सिफारिशों और रिपोर्टों पर आधारित था। गृह मंत्रालय द्वारा 2016 में जारी कार्यालय ज्ञापन में राष्ट्रपति को तीन माह के भीतर निर्णय लेने की बात कही गई थी। सरकारिया आयोग (1988) और पुंछी आयोग (2010) ने विधेयकों पर निर्णय के लिए समयबद्ध प्रक्रिया की सिफारिश की थी। विशेष रूप से पुंछी आयोग ने राज्यपाल को छह माह के भीतर निर्णय लेने की सिफारिश की थी। आइये समझते हैं संवैधानिक प्रावधानों की रूपरेखा के बारे में अनुच्छेद 200: राज्य विधानसभा द्वारा पारित किसी भी विधेयक को राज्यपाल के पास अनुमोदन के लिए भेजा जाता है। राज्यपाल के विकल्प-विधेयक को स्वीकृति देना, अस्वीकृत करना, राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखना।यदि विधेयक धन विधेयक नहीं है, तो राज्यपाल इसे पुनर्विचार हेतु विधानसभा को लौटा सकते हैं। यदि विधानसभा संशोधनों सहित या बिना संशोधन के विधेयक को पुनः पारित कर देती है, तो राज्यपाल को अनिवार्य रूप से स्वीकृति देनी होती है।अनुच्छेद 201: यदि राज्यपाल विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजते हैं, तो राष्ट्रपति:उसे स्वीकृति दे सकते हैं,या अस्वीकृत कर सकते हैं,या पुनर्विचार हेतु वापस भेज सकते हैं।पुनर्विचार के बाद यदि विधेयक फिर से पारित होता है, तो अंतिम निर्णय राष्ट्रपति द्वारा ही लिया जाता है। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के प्रभाव पर गौर करें तो पायेंगे कि अब राष्ट्रपति और राज्यपाल अनिश्चितकाल तक विधेयकों को लंबित नहीं रख सकते। इससे विधायी प्रक्रिया में पारदर्शिता और गति आएगी। निर्णय यह सुनिश्चित करता है कि केंद्र द्वारा राज्य के कार्यों में अनुचित हस्तक्षेप न हो। राज्यपालों की मनमानी पर अंकुश लगेगा और सहकारी संघवाद को मजबूती मिलेगी। राज्य विधानसभाओं के द्वारा पारित विधेयकों को कार्यपालिका द्वारा बाधित नहीं किया जा सकेगा, जिससे विधायी प्रक्रिया की स्वतंत्रता सुनिश्चित होगी। यदि राष्ट्रपति या राज्यपाल समयसीमा का पालन नहीं करते, तो रिट याचिका द्वारा न्यायिक हस्तक्षेप संभव होगा। यह कार्यपालिका को संविधान की सीमाओं में कार्य करने के लिए बाध्य करेगा। निर्णय यह रेखांकित करता है कि निष्क्रियता भी मनमानी के बराबर है और यह संवैधानिक सिद्धांतों के विरुद्ध है।यह भी सच है कि कार्यपालिका के कार्यों में न्यायालय का हस्तक्षेप शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के विरुद्ध माना जा सकता है। यह संवैधानिक प्रमुखों की विवेकाधीन शक्तियों को सीमित कर सकता है।अनुच्छेद 212 के तहत विधायी कार्यवाही न्यायिक जाँच से मुक्त होती है। राज्यपाल की भूमिका भी विधायी प्रक्रिया का हिस्सा है, अतः इसमें न्यायिक हस्तक्षेप संविधान विरोधी माना जा सकता है। जब कार्यपालिका और न्यायपालिका आमने-सामने होंगे, तो इससे शासन प्रणाली में टकराव और जटिलताएँ बढ़ सकती हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि राष्ट्रपति संविधान के तहत बाध्य नहीं हैं जैसे कि राज्यपाल होते हैं। इससे कार्यान्वयन में असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।अंत में कह सकते हैं कि लोकतंत्र में संवैधानिक प्रमुखों को स्वतंत्रता दी जानी चाहिए, लेकिन यह स्वतंत्रता निरंकुश नहीं हो सकती। जवाबदेही और विवेक के बीच संतुलन आवश्यक है। सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय संविधान की मूल भावना, जैसे कि उत्तरदायित्व, पारदर्शिता और संघीय संतुलन, को मजबूत करता है। यद्यपि इसमें कुछ सीमाएं और चुनौतियाँ हैं, फिर भी यह निर्णय विधायी प्रक्रिया को अधिक गतिशील, उत्तरदायी और प्रभावी बनाने की दिशा में एक निर्णायक कदम है।