भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
जी हां यह सच है कि भारत की ऊर्जा आवश्यकताओं और औद्योगिक विकास की गति को देखते हुए देश को दीर्घकालिक, स्वच्छ और भरोसेमंद ऊर्जा स्रोतों की आवश्यकता है। इस दिशा में परमाणु ऊर्जा न केवल देश की ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करती है, बल्कि शुद्ध-शून्य उत्सर्जन लक्ष्यों की ओर अग्रसर होने में भी एक प्रभावी माध्यम बनती जा रही है। हाल ही में भारत सरकार ने वित्त वर्ष 2026 के केंद्रीय बजट में वर्ष 2047 तक 100,000 मेगावाट परमाणु क्षमता प्राप्त करने का महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है। यह लक्ष्य न केवल पर्यावरणीय प्रतिबद्धताओं का प्रतीक है, बल्कि भारत के वैश्विक ऊर्जा नेतृत्व की दिशा में एक रणनीतिक कदम भी है। आइये समझते हैं परमाणु ऊर्जा और ऊर्जा संक्रमण में भारत की रणनीति के बारे में। भारत वर्ष 2070 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन प्राप्त करने की प्रतिबद्धता जता चुका है। इसके लिये जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता घटाना अनिवार्य है और यहीं पर परमाणु ऊर्जा की अहमियत सामने आती है। जहाँ पवन और सौर ऊर्जा जैसे नवीकरणीय स्रोत मौसम पर निर्भर करते हैं, वहीं परमाणु ऊर्जा 24x7 स्थिर ऊर्जा उपलब्ध कराने में सक्षम है।याद रहे वर्ष 2031-32 तक भारत की परमाणु उत्पादन क्षमता को 8,180 मेगावाट से बढ़ाकर 22,480 मेगावाट करने की योजना है। भारत की बिजली की माँग हर वर्ष लगभग 6-8% की दर से बढ़ रही है। ऐसे में परमाणु संयंत्र ग़ैर-निरंतर नवीकरणीय स्रोतों की तुलना में बेहतर विकल्प बनते हैं। केंद्र सरकार ने 2031-32 तक 18 नए रिएक्टर स्थापित करने की योजना बनाई है जिससे निरंतर आपूर्ति सुनिश्चित हो सके। गर हम आर्थिक विकास और परमाणु ऊर्जा का योगदान की बात करें तो ऊर्जा-गहन उद्योग जैसे इस्पात, सीमेंट और एल्यूमीनियम का डीकार्बोनाइज़ेशन परमाणु ऊर्जा के माध्यम से संभव है। भारत में प्रस्तावित भारत स्मॉल रिएक्टर और स्मॉल मॉड्यूलर रिएक्टर जैसी तकनीकें उद्योगों को कैप्टिव पावर देकर कार्बन उत्सर्जन कम करने में मदद करेंगी।एस एम आर के लिए 20,000 करोड़ रुपए का बजटीय आवंटन इस दिशा में बड़ा कदम है।भारत का त्रि-स्तरीय परमाणु कार्यक्रम तकनीकी दृष्टि से समृद्ध है। प्रोटोटाइप फास्ट ब्रीडर रिएक्टर, जो थोरियम पर आधारित ऊर्जा उत्पादन की नींव है, 2024 तक कोर लोडिंग तक पहुँच चुका है। इससे यूरेनियम पर निर्भरता कम होगी। आइये देखें हमारी रणनीतिक अंतर्राष्ट्रीय साझेदारियों को। भारत ने वर्ष 2005 में अमेरिका-भारत असैन्य परमाणु समझौते के माध्यम से वैश्विक यूरेनियम बाज़ार तक पहुँच बनाई। इसके बाद भारत ने फ्राँस, रूस और कनाडा जैसे देशों के साथ परमाणु रिएक्टर निर्माण में सहयोग बढ़ाया है। फ्राँस के साथ नेक्स्ट जनरेशन रिएक्टर पर सहयोग की सहमति विशेष रूप से उल्लेखनीय है। परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में तकनीकी, निर्माण, सुरक्षा और अनुसंधान में भारी रोज़गार की संभावना होती है। एक अनुमान के अनुसार, परमाणु क्षेत्र पवन ऊर्जा की तुलना में 25% अधिक रोज़गार सृजित करता है। इसके अलावा, परमाणु उद्योग के श्रमिक अन्य नवीकरणीय क्षेत्रों की तुलना में एक तिहाई अधिक वेतन पाते हैं। बी एस आर और एस एम आर जैसे विकेंद्रीकृत रिएक्टर दूरदराज़ क्षेत्रों, ऑफ-ग्रिड गाँवों और सीमावर्ती इलाकों में ऊर्जा आपूर्ति कर सकते हैं, जिससे स्थानीय ऊर्जा अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन मिलता है। विश्व स्तर पर हमारी परमाणु ऊर्जा की स्थिति में स्पष्ट है कि 440 रिएक्टर वर्तमान में कार्यरत हैं जो 2602 TWh बिजली उत्पन्न करते हैं (2023 के अनुसार), 14 देश अपनी बिजली का 25% से अधिक परमाणु ऊर्जा से प्राप्त करते हैं।, फ्राँस इस क्षेत्र में अग्रणी है, जहाँ परमाणु ऊर्जा से 70% बिजली मिलती है और भारत से पहले बांग्लादेश और तुर्की जैसे देश भी अपने पहले रिएक्टर निर्माण के चरण में हैं। यह भी सच है कि भारत के परमाणु ऊर्जा क्षेत्र के सामने कई प्रमुख चुनौतियां भी हैं। भारत में परमाणु परियोजनाओं के लंबे निर्माण काल और विलंब चिंता का विषय हैं। PFBR की ही बात करें, तो इसका निर्माण 2004 में शुरू हुआ था और यह अब जाकर 2024 में कोर लोडिंग तक पहुँचा है।भारत में यूरेनियम का उत्पादन बेहद सीमित है और यह वैश्विक उत्पादन का मात्र 1-2% है। इससे भारत को बाहरी स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ता है, जो भू-राजनीतिक जोखिम बढ़ाता है। इसके अलावा, आयातित ईंधन का प्रयोग करने वाले रिएक्टरों को आई ए इ ए सुरक्षा प्रोटोकॉल का पालन करना होता है, जो प्रक्रियाओं को जटिल बनाता है।भारत का दीर्घकालिक लक्ष्य थोरियम पर आधारित ऊर्जा प्रणाली है, लेकिन ए डी एस एस जैसी तकनीकें अभी भी प्रारंभिक अवस्था में हैं। द्वितीय और तृतीय चरण के लिए आवश्यक एफ बी आर तकनीकें अब तक पूर्णतः कार्यशील नहीं हुई हैं।परमाणु संयंत्रों की उच्च पूंजी लागत, लंबा निर्माण समय और राजनीतिक जोखिम निवेशकों को आकर्षित करने में बाधक हैं। सी इ ए के अनुसार, एक पी एच डबल्यू आर संयंत्र की पूंजी लागत 117 मिलियन रुपए प्रति मेगावाट तक है। परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा भले ही अंतरराष्ट्रीय मानकों पर आधारित हो, लेकिन फुकुशिमा जैसी आपदाओं ने आम जनता में आशंका पैदा की है। ग्रामीण या घनी आबादी वाले क्षेत्रों में संयंत्र निर्माण के समय सामाजिक विरोध सामने आता है, जो भूमि अधिग्रहण और विस्थापन के मुद्दों से जुड़ा होता है। अंत में कह सकते हैं कि भारत का परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम केवल ऊर्जा उत्पादन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह देश की रणनीतिक स्वायत्तता, पर्यावरणीय प्रतिबद्धता, आर्थिक विकास और सामाजिक सशक्तिकरण की दिशा में एक व्यापक दृष्टिकोण को दर्शाता है।यदि सरकार निजी क्षेत्र की भागीदारी, प्रौद्योगिकीय नवाचार, तेज कार्यान्वयन, और जन सहभागिता को बढ़ावा देती है, तो भारत न केवल 2047 तक 100,000 मेगावाट लक्ष्य प्राप्त कर सकता है, बल्कि वैश्विक परमाणु ऊर्जा मानचित्र पर एक निर्णायक शक्ति बनकर उभर सकता है।