भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
जी हां भारत का संवैधानिक ढांचा न्यायपालिका को स्वतंत्रता और जवाबदेही के बीच संतुलन स्थापित करने का अधिकार देता है। यह स्वतंत्रता शासन के अन्य दो अंगों—विधायिका और कार्यपालिका—से न्यायपालिका को स्वायत्त रखने के लिए आवश्यक भी है। मगर न्यायपालिका को पूरी तरह निरंकुश नहीं छोड़ा जा सकता, क्योंकि यह सुनिश्चित करना भी उतना ही आवश्यक है कि न्यायिक व्यवस्था पारदर्शी, जवाबदेह और निष्पक्ष बनी रहे। हाल ही में न्यायिक आचरण को लेकर उठे विवादों ने इस विषय को पुनः चर्चा में ला दिया है। आइये बात करते हैं भारतीय न्यायपालिका की स्वतंत्रता और जवाबदेही के बीच मौजूद जटिल संबंधों, उनसे जुड़ी चुनौतियों और सुधार की संभावनाओं का विस्तृत विश्लेषण पर। यह सच है कि संविधान ने न्यायपालिका को स्वतंत्रता प्रदान करने के लिए कई प्रावधान किए हैं। ये प्रावधान न्यायपालिका की निष्पक्षता और स्वायत्तता सुनिश्चित करते हैं, जिससे न्यायाधीश बाहरी दबाव से मुक्त रहकर अपने कर्तव्यों का पालन कर सकें। संविधान में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच स्पष्ट रूप से शक्तियों का विभाजन किया गया है। यह न्यायपालिका की स्वायत्तता बनाए रखने के लिए आवश्यक है ताकि कोई भी अन्य अंग इसके कार्यों में हस्तक्षेप न कर सके। अनुच्छेद 124 और 217 के तहत, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को निश्चित कार्यकाल की सुरक्षा दी गई है। उन्हें मनमाने तरीके से हटाया नहीं जा सकता, जिससे वे दबावमुक्त होकर निर्णय ले सकें।अनुच्छेद 125 और 221 के तहत, न्यायाधीशों के वेतन और सेवा शर्तों में कोई मनमाना परिवर्तन नहीं किया जा सकता। यह उन्हें स्वतंत्र रूप से कार्य करने में मदद करता है।अनुच्छेद 124(4) और 217(1)(b) के तहत, किसी न्यायाधीश को केवल महाभियोग के माध्यम से ही हटाया जा सकता है। इस प्रक्रिया को इतना कठिन बनाया गया है कि न्यायपालिका राजनीतिक दबाव से मुक्त रह सके। अनुच्छेद 32 और 226 के तहत, न्यायपालिका को न्यायिक समीक्षा का अधिकार प्राप्त है, जिससे वह सरकार के किसी भी असंवैधानिक निर्णय को निरस्त कर सकती है। यह न्यायपालिका को संविधान का संरक्षक बनाता है। अनुच्छेद 121 के तहत, संसद में न्यायाधीशों के कार्यों पर चर्चा नहीं की जा सकती, जब तक कि मामला महाभियोग से संबंधित न हो।अनुच्छेद 129 और 215 न्यायालयों को अवमानना के मामलों में दंड देने का अधिकार प्रदान करते हैं, जिससे न्यायिक आदेशों की प्रभावशीलता बनी रहती है। अनुच्छेद 124(7) के तहत, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश सेवानिवृत्ति के बाद किसी भी अदालत में वकालत नहीं कर सकते। आइये बात करते हैं कॉलेजियम प्रणाली के बारे में। न्यायाधीशों की नियुक्ति में न्यायपालिका की स्वायत्तता बनाए रखने के लिए कॉलेजियम प्रणाली लागू की गई है। हालांकि, इसमें पारदर्शिता की कमी को लेकर विवाद भी हैं।सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के लिए एक आचार संहिता बनाई गई है, जिसमें नैतिकता और निष्पक्षता को बनाए रखने पर जोर दिया गया है। न्यायिक स्वतंत्रता से संबंधित कई प्रमुख चुनौतियाँ होती हैं। कॉलेजियम प्रणाली में नियुक्ति प्रक्रिया पूरी तरह से पारदर्शी नहीं है। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को लागू करने का प्रयास असफल रहा, जिससे न्यायपालिका में जवाबदेही बढ़ाने का अवसर खो गया। कई मामलों में ‘अंकल जज सिंड्रोम’ देखने को मिलता है, जिससे योग्यता के बजाय संबंधों के आधार पर पदोन्नति का आरोप लगता है।फरवरी 2025 तक, सर्वोच्च न्यायालय में 80,982 मामले लंबित थे। मुकदमों के निपटारे में होने वाली देरी से न्याय की धारणा प्रभावित होती है।नवंबर 2024 में, सरकार ने सूचित किया कि देश में 5,600 से अधिक न्यायिक पद खाली हैं। न्यायिक नियुक्तियों में देरी से लंबित मामलों की संख्या बढ़ती जाती है।ज़िला और अधीनस्थ न्यायालयों में बुनियादी सुविधाओं की कमी है। रिपोर्ट के अनुसार, केवल 45% न्यायालयों में इलेक्ट्रॉनिक डिस्प्ले सुविधाएँ उपलब्ध हैं। कई बार न्यायपालिका कार्यपालिका और विधायिका के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप करती है। हाल के वर्षों में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर दिए गए फैसले को न्यायिक अतिक्रमण का उदाहरण माना गया। न्यायाधीशों के स्थानांतरण के मामले न्यायपालिका की स्वायत्तता पर सवाल उठाते हैं। कई मामलों में कार्यपालिका पर न्यायिक स्वतंत्रता को प्रभावित करने के आरोप लगे हैं। न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोप भी सामने आए हैं, जिससे न्यायपालिका की निष्पक्षता पर प्रश्न उठते हैं।जेल सांख्यिकी भारत-2022 के अनुसार, 75.8% कैदी विचाराधीन हैं।यह दर्शाता है कि कानूनी सहायता की कमी के कारण गरीब और हाशिए के लोग सबसे अधिक प्रभावित होते हैं।कानूनी प्रक्रिया की जटिलता और मुकदमों की उच्च लागत न्याय को गरीबों की पहुँच से दूर कर देती है। न्यायिक सुधार के लिए कई कदम उठाए गए हैं जैसे डिजिटल न्यायपालिका को बढ़ावा देने के लिए ई-कोर्ट परियोजना चलाई जा रही है।महिलाओं और बच्चों से जुड़े मामलों के शीघ्र निपटारे के लिए 754 फास्ट ट्रैक अदालतें बनाई गई हैं।मध्यस्थता और लोक अदालतों को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिससे मुकदमों का बोझ कम किया जा सके।न्यायाधीशों के लिए लैंगिक संवेदीकरण और मानवाधिकार प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। न्यायपालिका में सुधार के लिए कई सुझाव हैं इनमें न्यायिक नियुक्तियों में पारदर्शिता – एन जे ए सी जैसे तंत्र को पुनर्जीवित किया जाना चाहिए।न्यायपालिका में रिक्त पदों को तेजी से भरा जाना चाहिए। ई-कोर्ट और वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग सुविधाओं का विस्तार किया जाना चाहिए। मध्यस्थता और लोक अदालतों का अधिक उपयोग किया जाना चाहिए।एक स्वतंत्र न्यायिक शिकायत आयोग का गठन किया जाना चाहिए। अंत में कह सकते हैं कि भारतीय न्यायपालिका की स्वतंत्रता आवश्यक है, लेकिन इसकी जवाबदेही भी सुनिश्चित की जानी चाहिए। पारदर्शिता, दक्षता और नैतिकता को बनाए रखते हुए न्यायपालिका को अधिक प्रभावी बनाने की दिशा में सुधार आवश्यक हैं।