भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
जी हां प्राकृतिक कृषि रासायन-प्रधान कृषि, जिसने हरित क्रांति के माध्यम से खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के बावजूद मृदा के स्वास्थ्य को खराब किया है और लघु किसानों के लिये लागत बढ़ा दी है, के लिये एक आशाजनक विकल्प के रूप में उभरी है। भारत सरकार के राष्ट्रीय प्राकृतिक कृषि मिशन का लक्ष्य 7.5 लाख हेक्टेयर में 1 करोड़ किसानों को समर्थन देना है, जैव-संसाधन केंद्र स्थापित करना है। भारत को प्रमाणन चुनौतियों का समाधान करने, पर्यावरणीय लाभों पर निर्णायक साक्ष्य एकत्र करने और प्राकृतिक कृषि पद्धतियों को अपनाने वाले किसानों के लिये आर्थिक व्यवहार्यता सुनिश्चित करने के लिये कड़े प्रयासों की आवश्यकता है। आइये बात करते हैं प्राकृतिक कृषि के बारे में कि आखिर यह होती क्या है। प्राकृतिक कृषि एक संधारणीय कृषि पद्धति है जिसमें रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों और गहन जुताई की आवश्यकता नहीं होती है, साथ ही यह पद्धति मृदा की उर्वरता तथा फसल वृद्धि के लिये पारिस्थितिक प्रक्रियाओं एवं स्वदेशी संसाधनों पर निर्भर करती है। इसमें कोई रासायनिक इनपुट नहीं होती, जैव-इनपुट का उपयोग, न्यूनतम मृदा व्यवधान, अंतरफसल एवं फसल चक्रण और मल्चिंग और कवर क्रॉपिंग होते हैं। भारत के लिये प्राकृतिक कृषि के कई प्रमुख लाभ होते हैं। जैसे मृदा स्वास्थ्य को बढ़ाती है और भूमि क्षरण को कम करती है, जल की खपत कम होती है और सूखे के प्रति सहिष्णुता बढ़ती है, कृषि की लागत कम होती है और किसानों की लाभप्रदता बढ़ती है, प्राकृतिक कृषि से आदान लागत में उल्लेखनीय कमी, जलवायु अनुकूलन बढ़ाती है और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कम करती है, विविध फसल के साथ खाद्य और पोषण सुरक्षा को बढ़ावा देती है, ग्रामीण आजीविका को मज़बूत बनाती है और रोज़गार सृजन करती है आदि होते हैं। भारत में प्राकृतिक कृषि से जुड़े कई प्रमुख मुद्दे होते हैं। इनमें वैज्ञानिक सत्यापन और दीर्घकालिक अध्ययनों का अभाव, फसल की पैदावार और उत्पादकता जोखिम में अनिश्चितता, सुपरिभाषित प्रमाणन मानकों का अभाव, सीमित बाज़ार संपर्क और मूल्य शृंखला विकास, उच्च श्रम आवश्यकताएँ और सीमित मशीनीकरण, जलवायु संवेदनशीलता और क्षेत्रीय उपयुक्तता के मुद्दे आदि शामिल हैं। भारत अपने कृषि परिदृश्य में प्राकृतिक कृषि को एकीकृत करने के लिये कई उपाय अपना सकता है जैसे अनुसंधान और साक्ष्य-आधारित स्केलिंग को मज़बूत करना, प्राकृतिक उर्वरक के अंगीकरण के लिये कृषि सब्सिडी में सुधार, बाज़ार संपर्क और प्रमाणन कार्यढाँचे का विकास, किसान प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण को सुदृढ़ करना आदि हैं इनमें संरचित किसान-से-किसान शिक्षण मॉडल विकसित किया जाना चाहिये, जहाँ प्रशिक्षित किसान अपने समुदायों में प्राकृतिक कृषि के राजदूत के रूप में कार्य करें। जैव-संसाधन केंद्रों को खाद बनाने, मल्चिंग और सूक्ष्मजीवी मृदा संवर्द्धन के लिये व्यावहारिक शिक्षण केंद्र के रूप में कार्य करना चाहिये। दीनदयाल अंत्योदय योजना के अंतर्गत कृषि सखियों का लाभ उठाकर महिला किसानों की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित की जा सकती है। किसान सुविधा ऐप जैसे मोबाइल आधारित परामर्श सेवाओं का विस्तार करने से प्राकृतिक उर्वरक तकनीकों पर वास्तविक काल में मार्गदर्शन मिलेगा। प्राकृतिक कृषि को वाटरशेड और कृषि वानिकी कार्यक्रमों के साथ एकीकृत करना-सहिष्णुता में सुधार के लिये, मृदा नमी प्रतिधारण को बढ़ाने के लिये प्राकृतिक कृषि को PMKSY जैसे वाटरशेड प्रबंधन कार्यक्रमों के साथ मिश्रित किया जाना चाहिये। राष्ट्रीय कृषि वानिकी नीति के तहत सिल्वो-पैस्टोरल (प्राकृतिक कृषि-प्रणाली जिसमें वृक्षारोपण और घास या चरागाहों पर आधारित पशुपालन का संयोजन हो) और कृषि वानिकी प्रणालियों को बढ़ावा देने से किसानों की आय में विविधता आएगी तथा मृदा पुनर्जनन भी सुनिश्चित होगा। जल-कमी वाले क्षेत्रों में सिंचाई के जोखिम को कम करने के लिये जलग्रहण-आधारित वर्षाजल संचयन मॉडल को प्राकृतिक संसाधनों के साथ एकीकृत किया जा सकता है। जल शक्ति अभियान को वर्षा आधारित क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाधनों-अंगीकरण को जोड़ने से बेहतर संसाधन दक्षता सुनिश्चित हो सकती है। नाइट्रोजन-फिक्सिंग वृक्षों (जैसे: ग्लिरिसिडिया, सुबाबुल) के रोपण को प्रोत्साहित करने से प्राकृतिक रूप से मृदा की उर्वरता की पूर्ति हो सकती है।प्राकृतिक उर्वरक प्रथाओं के लिये मशीनीकरण और प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देना-प्राकृतिक उर्वरक की श्रम-प्रधान प्रकृति को देखते हुए, कम लागत वाले खरपतवारनाशक, सूक्ष्मजीवी स्प्रेयर और जैव-उर्वरक एप्लीकेटर जैसे अनुकूलित मशीनीकरण समाधान विकसित किये जाने चाहिये।कृषि-तकनीक नवाचार निधि के अंतर्गत स्टार्टअप इनक्यूबेटर कृषि-विशिष्ट मशीनीकरण उपकरणों के लिये नवाचारों का समर्थन कर सकते हैं। कृषि यंत्रीकरण पर उप-मिशन का विस्तार किया जाना चाहिये, ताकि इसमें कृषि यंत्रीकरण के अनुकूल उपकरणों को शामिल किया जा सके, जिससे लघु एवं सीमांत किसानों के लिये उनकी पहुँच सुनिश्चित हो सके। AI और IoT-आधारित मृदा स्वास्थ्य निगरानी का लाभ उठाने से प्राकृतिक कृषि प्रणालियों में इनपुट उपयोग को और अधिक अनुकूलित किया जा सकेगा। राज्य स्तरीय नीतियों के माध्यम से संस्थागत समर्थन बढ़ाना-ग्राम पंचायत स्तर पर राष्ट्रीय बागवानी मिशन समितियों को सदृढ़ करने से विकेंद्रीकृत निर्णय प्रक्रिया और कृषक भागीदारी सुनिश्चित होगी। सामुदायिक कम्पोस्ट और जैव-संसाधन केंद्रों के लिये भूमि आवंटित करने हेतु पंचायतों को प्रोत्साहित करने से प्राकृतिक उर्वरकों में स्थानीय स्तर पर आत्मनिर्भरता आएगी। मध्याह्न भोजन और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिये प्राकृतिक संसाधनों से उत्पादित खाद्य उत्पादों के स्रोत के लिये राज्य खरीद नीतियों को संरेखित करने से संस्थागत बाज़ार समर्थन मिल सकता है। अंत में कह सकते हैं कि प्राकृतिक कृषि रासायनिक-प्रधान कृषि के लिये एक स्थायी विकल्प प्रस्तुत करती है, जो बेहतर मृदा स्वास्थ्य, न्यूनतम आदान लागत और जलवायु अनुकूलन जैसे लाभ प्रदान करती है। प्राकृतिक कृषि को आर्थिक रूप से व्यवहार्य बनाने के लिये अनुसंधान, नीति समर्थन और किसान प्रोत्साहन को मज़बूत करना महत्त्वपूर्ण होगा। वैज्ञानिक सत्यापन और संस्थागत समर्थन को एकीकृत करने वाला एक संतुलित दृष्टिकोण भारत के कृषि परिदृश्य में इसकी दीर्घकालिक सफलता सुनिश्चित कर सकता है।