भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
भारतीय संविधान का न्यायिक तंत्र अनुच्छेद 124, 217 और 224 के तहत संचालित होता है, जो सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया को निर्धारित करता है। हालांकि, भारतीय न्यायपालिका में किसी भी विशेष जाति, समुदाय या वर्ग के लिए आरक्षण की व्यवस्था नहीं है। इसके चलते उच्च न्यायपालिका में सामाजिक विविधता को लेकर कई सवाल उठते रहे हैं। हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा संसद में प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार, 2018 से लेकर अब तक उच्च न्यायालयों में नियुक्त किए गए न्यायाधीशों में अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी), अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और अल्पसंख्यक समुदायों का प्रतिनिधित्व 23% से भी कम है। यह रिपोर्ट उच्च न्यायालयों में सामाजिक प्रतिनिधित्व की स्थिति, इसमें सुधार के संभावित उपायों और न्यायपालिका में सामाजिक विविधता के महत्व पर केंद्रित है। आइये बात कहते हैं उच्च न्यायालयों में सामाजिक प्रतिनिधित्व की मौजूदा स्थिति के बारे में। केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार, 2018 से अब तक उच्च न्यायालयों में कुल 715 न्यायाधीशों की नियुक्ति हुई है। इनमें विभिन्न सामाजिक समूहों का प्रतिनिधित्व मौजूद है जिसमें अनुसूचित जाति से 22 न्यायाधीश, अनुसूचित जनजाति से 16 न्यायाधीश, अन्य पिछड़ा वर्ग से 89 न्यायाधीश और अल्पसंख्यक समुदायों से 37 न्यायाधीश हैं। हालांकि, सरकार ने यह भी स्पष्ट किया कि न्यायिक नियुक्तियों में सामाजिक विविधता से संबंधित विस्तृत आंकड़े केंद्रीय स्तर पर उपलब्ध नहीं हैं। न्यायिक नियुक्तियों में सामाजिक विविधता की कमी महसूस की जा रही है। राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के सांसद मनोज कुमार झा ने उच्च न्यायपालिका में हाशिए पर पड़े समुदायों के प्रतिनिधित्व को लेकर सवाल उठाया। उन्होंने जानना चाहा कि क्या हाल के वर्षों में न्यायपालिका में कमजोर वर्गों की भागीदारी घटी है। विधि एवं न्याय राज्य मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने उत्तर देते हुए कहा कि उच्च न्यायपालिका में जातिगत या समुदाय विशेष के आधार पर आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है। हालांकि, सरकार न्यायपालिका में सामाजिक विविधता को बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध है। इसी दिशा में 2018 से न्यायिक नियुक्तियों के लिए उम्मीदवारों को अपनी सामाजिक पृष्ठभूमि की जानकारी देने हेतु एक निर्धारित प्रारूप अपनाया गया है। आइये गौर करते हैं न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया पर। भारतीय न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति को पारदर्शी और निष्पक्ष बनाए रखने के लिए एक निर्धारित प्रक्रिया अपनाई जाती है। सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति की सिफारिश मुख्य न्यायाधीश द्वारा की जाती है। उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति का प्रस्ताव संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा दिया जाता है।सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति कोलेजियम प्रणाली के तहत की जाती है, जिसमें वरिष्ठ न्यायाधीशों, राष्ट्रपति और केंद्र सरकार की भूमिका होती है। हालांकि, इस प्रक्रिया में सामाजिक विविधता सुनिश्चित करने के लिए कोई स्पष्ट नीति नहीं है, जिससे हाशिए पर रहने वाले समुदायों को न्यायपालिका में उचित स्थान नहीं मिल पाता। न्यायपालिका में सामाजिक विविधता बढ़ाने के कई उपाय किये जा सकते हैं जैसे आरक्षण नीति पर पुनर्विचार- न्यायपालिका में प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण व्यवस्था लागू करने पर विचार किया जा सकता है। यह सामाजिक न्याय और समावेशन को बढ़ावा देगा। योग्यता और अवसरों की समानता- न्यायिक सेवाओं में सामाजिक रूप से कमजोर वर्गों को अधिक अवसर देने के लिए विशेष प्रशिक्षण और छात्रवृत्ति योजनाएं शुरू की जानी चाहिए। न्यायपालिका में भर्ती के लिए कानूनी शिक्षा और परीक्षाओं में कमजोर वर्गों को विशेष मार्गदर्शन दिया जाना चाहिए।अखिल भारतीय न्यायिक सेवा को लागू करना- न्यायिक सेवाओं में समान अवसर सुनिश्चित करने के लिए अखिल भारतीय न्यायिक सेवा को प्रभावी ढंग से लागू किया जाए।इससे पूरे देश में न्यायिक नियुक्तियों में पारदर्शिता और समानता बनी रहेगी।कोलेजियम प्रणाली में सुधार- न्यायिक नियुक्ति प्रक्रिया में अधिक पारदर्शिता और सामाजिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए कोलेजियम प्रणाली का पुनः मूल्यांकन किया जाना चाहिए। न्यायिक आयोग जैसी संस्था का गठन किया जा सकता है, जिसमें समाज के विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधि शामिल हों। महिलाओं और अल्पसंख्यकों को विशेष प्रोत्साहन-न्यायपालिका में महिलाओं और अल्पसंख्यकों की भागीदारी बढ़ाने के लिए विशेष योजनाएं लागू की जानी चाहिए। महिला न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने के लिए विशेष प्रोत्साहन नीति बनाई जा सकती है। यह भी सच है कि सामाजिक प्रतिनिधित्व का समाज पर खासा प्रभाव पड़ता है। यह भी माना जाता है कि न्यायपालिका में सामाजिक विविधता को बढ़ावा देने से न्याय व्यवस्था में संतुलन आएगा और जनता का विश्वास बढ़ेगा। जब न्यायालयों में सभी वर्गों के न्यायाधीश होंगे, तो निर्णय अधिक समावेशी और न्यायसंगत होंगे। इसके अतिरिक्त, न्यायपालिका की लोकतांत्रिकता और निष्पक्षता भी मजबूत होगी। न्यायपालिका में विविधता के कुछ मुख्य लाभ होते हैं जिन्हें नज़रंदाज नहीं किया जा सकता। जैसे सामाजिक समावेशन-यह न्याय प्रणाली को व्यापक और संतुलित बनाता है।लोकतांत्रिक न्याय व्यवस्था-न्यायपालिका में सभी समुदायों के लोगों की भागीदारी से न्यायिक निर्णय अधिक संतुलित होंगे। न्याय प्रणाली में विश्वास-समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व होने से आम जनता का न्याय व्यवस्था में विश्वास बढ़ेगा। अंत में कह सकते हैं कि भारत की उच्च न्यायपालिका में सामाजिक विविधता की कमी भले ही एक महत्वपूर्ण मुद्दा कहा जाता है मगर इसमें कोई दो राय नहीं है कि सरकार और न्यायपालिका इस दिशा में सुधार के लिए प्रयासरत हैं। न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता बढ़ाने, आरक्षण नीति पर विचार करने, और कमजोर वर्गों को न्यायपालिका में लाने के लिए विशेष प्रयास करने की जरूरत है, यह कानून विशेषज्ञों की राय है।