भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
भारत में पंचायती राज संस्थाएँ ग्रामीण प्रशासन की आधारशिला हैं। इनका उद्देश्य जमीनी स्तर पर लोकतंत्र को मजबूत करना और विकास को अधिक समावेशी बनाना है। 1992 में संविधान के 73वें संशोधन के माध्यम से इन्हें संवैधानिक मान्यता मिली, जिसके तहत ग्राम, ब्लॉक और जिला स्तर पर निर्वाचित निकायों की स्थापना की गई। हालांकि, इन संस्थाओं को अपने कार्यों को प्रभावी ढंग से संचालित करने के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधनों और प्रशासनिक अधिकारों की आवश्यकता होती है। वर्तमान में, पंचायतें कई वित्तीय चुनौतियों का सामना कर रही हैं, जो उनके सुचारू संचालन में बाधा डालती हैं। आइये बात करते हैं पंचायती राज की भूमिका और वर्तमान परिदृश्य की। पंचायती राज प्रणाली का मूल उद्देश्य ग्रामीण समुदायों को सशक्त बनाना और उन्हें अपने स्थानीय मुद्दों का समाधान स्वयं निकालने का अवसर प्रदान करना है। यह प्रणाली विकेंद्रीकरण की अवधारणा पर आधारित है, जिससे स्थानीय प्रशासन को बेहतर बनाया जा सकता है। हालांकि, वित्तीय निर्भरता और संसाधनों की कमी के कारण यह प्रणाली अपने वास्तविक उद्देश्य को पूरी तरह से पूरा करने में असमर्थ रही है। इसमें कोई दो राय नहीं कि पंचायती राज संस्थाओं को कई वित्तीय चुनौतियों से जूझना पड़ता है। जैसे प्रभावी विकेंद्रीकरण की कमी। संविधान में पंचायती राज संस्थाओं को स्वायत्तता प्रदान करने के प्रावधान किए गए हैं, लेकिन व्यावहारिक रूप से उन्हें पर्याप्त अधिकार नहीं मिल पाए हैं। राज्यों में पंचायतों को वित्तीय निर्णय लेने की पूर्ण स्वतंत्रता नहीं दी गई है, जिससे वे अपनी जरूरतों के अनुसार संसाधनों का प्रबंधन नहीं कर पातीं। इसके अलावा, कई राज्यों में प्रशासनिक हस्तक्षेप अधिक रहता है, जिससे पंचायतों की स्वायत्तता सीमित हो जाती है।वर्तमान में पंचायतों की वित्तीय स्थिति मुख्य रूप से केंद्र और राज्य सरकारों से मिलने वाले अनुदानों पर निर्भर है। इन अनुदानों का उपयोग विभिन्न विकास योजनाओं को लागू करने के लिए किया जाता है, लेकिन इस निर्भरता से पंचायतों की वित्तीय स्वतंत्रता बाधित होती है। सरकारी सहायता के बिना वे अपनी बुनियादी सेवाओं को भी प्रभावी ढंग से नहीं चला सकतीं। औसतन, एक पंचायत को केंद्र सरकार से लगभग 17 लाख रुपये और राज्य सरकार से लगभग 3.25 लाख रुपये का अनुदान प्राप्त होता है। हालांकि, यह राशि पंचायतों की वास्तविक जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं होती है। साथ ही, ये अनुदान अक्सर शर्तों के साथ आते हैं, जिससे पंचायतों को अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार संसाधनों का उपयोग करने में कठिनाई होती है।स्थानीय स्तर पर कर एकत्र करने की पंचायतों की क्षमता बहुत सीमित है। कई पंचायतें संपत्ति कर, जल कर, बाजार शुल्क और अन्य स्थानीय करों को प्रभावी रूप से लागू नहीं कर पातीं। कर संग्रह प्रणाली की कमी और जागरूकता के अभाव के कारण पंचायतों का राजस्व सीमित रहता है। यदि पंचायतें अपने स्तर पर अधिक राजस्व जुटाने में सक्षम हों, तो वे सरकारी अनुदानों पर निर्भरता कम कर सकती हैं। वित्तीय पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी के कारण पंचायतों में धन का अनुचित उपयोग एक बड़ी समस्या बनी हुई है। कई मामलों में, पंचायत प्रतिनिधियों को वित्तीय प्रबंधन का उचित प्रशिक्षण नहीं दिया जाता, जिससे निधियों का कुशल उपयोग नहीं हो पाता। इसके अलावा, सामाजिक अंकेक्षण (सोशल ऑडिट) की व्यवस्था प्रभावी नहीं होने के कारण धन के दुरुपयोग और भ्रष्टाचार की संभावना बढ़ जाती है। पंचायती राज प्रणाली में ग्राम सभाओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, क्योंकि ये योजनाओं की निगरानी और निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में भागीदारी सुनिश्चित करती हैं। हालांकि, कई स्थानों पर ग्राम सभाएँ निष्क्रिय बनी रहती हैं, जिससे पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित नहीं हो पाती। यदि ग्राम सभाएँ अधिक सक्रिय हों, तो पंचायतों में वित्तीय पारदर्शिता को बढ़ाया जा सकता है। बावजूद इन चुनौतियों के इनके उचित समाधान और सुधार के लिए कई उपाय किये जा सकते हैं। जैसे पंचायतों की वित्तीय स्वायत्तता को बढ़ाना-पंचायतों को अधिक वित्तीय स्वतंत्रता देने के लिए उन्हें स्थानीय स्तर पर कर संग्रह करने का अधिकार दिया जाना चाहिए। संपत्ति कर, जल कर, बाजार शुल्क और अन्य करों की वसूली को सशक्त बनाया जाना चाहिए। साथ ही, पंचायतों को स्वयं के संसाधनों से राजस्व जुटाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, जिससे वे सरकारी अनुदानों पर कम निर्भर रहें। इसी प्रकार प्रशासनिक क्षमता का विकास- पंचायत प्रतिनिधियों को वित्तीय प्रबंधन, योजना निर्माण और प्रशासनिक कार्यों में प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। इसके लिए नियमित प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए जाने चाहिए, जिससे वे अपने अधिकारों और कर्तव्यों को बेहतर ढंग से समझ सकें। साथ ही, डिजिटल गवर्नेंस टूल्स का उपयोग कर पारदर्शिता को बढ़ाया जा सकता है। सामाजिक अंकेक्षण को अनिवार्य बनाना चाहिए और ग्राम सभाओं की भागीदारी को सुनिश्चित किया जाना चाहिए। इससे पंचायतों की वित्तीय गतिविधियों की निगरानी बेहतर होगी और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जा सकेगा। पंचायतों में पारदर्शिता लाने के लिए डिजिटल तकनीकों का उपयोग किया जा सकता है, जिससे निधियों के आवंटन और उपयोग की स्पष्ट जानकारी उपलब्ध कराई जा सके। पंचायतों के वित्तीय लेन-देन को ऑनलाइन प्लेटफार्मों पर लाने से पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित की जा सकती है। ई-गवर्नेंस टूल्स के माध्यम से निधियों के आवंटन और व्यय की जानकारी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराई जानी चाहिए, जिससे किसी भी प्रकार की अनियमितता को रोका जा सके। ग्राम सभाओं को सशक्त बनाने के लिए लोगों को जागरूक किया जाना चाहिए और उन्हें स्थानीय प्रशासन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। अगर ग्राम सभाएँ नियमित रूप से बैठकें करें और पंचायतों की योजनाओं की समीक्षा करें, तो वित्तीय पारदर्शिता में सुधार हो सकता है। अंत में हम कह सकते हैं कि पंचायती राज संस्थाएँ ग्रामीण भारत के सामाजिक और आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, लेकिन वित्तीय संसाधनों की कमी और प्रशासनिक चुनौतियों के कारण वे अपने दायित्वों को पूरी तरह से निभाने में असमर्थ रहती हैं। पंचायतों को अधिक वित्तीय स्वतंत्रता और प्रशासनिक अधिकार देने की आवश्यकता है, जिससे वे अधिक प्रभावी ढंग से कार्य कर सकें।