भुपेंद्र शर्मा, मुख्य संपादक , सिटी दर्पण, चंडीगढ़
जी हां यह बात हम नहीं कह रहे हैं बल्कि हाल ही में पीडब्ल्यूसी और परफियोस द्वारा भारतीयों की अपनी आय के खर्च को लेकर किये गये अध्ययन के बाद जारी वह रिपोर्ट कह रही है जिससे यह खुलासा हुआ है कि भारतीय अपनी आय का एक तिहाई हिस्सा लोन की किश्तों का भुगतान करने में खर्च कर रहे हैं, बजाय कि हमारे पिता जी, दादा जी और बुजुर्गों की तरह बचत करने में। हमारे जन्म के साथ ही लोन की ई एम आई चलने लगती है और यह बदस्तूर जारी रहती है हमारे अंतिम संस्कार तलक। पीडब्ल्यूसी और परफियोस ने उक्त अध्ययन के दौरान 30 लाख लोगों के खर्च व्यवहार का विश्लेषण किया, जो मुख्य रूप से फिनटेक, गैर-बैंकिंग वित्त कंपनियों (एनबीएफसी) और अन्य डिजिटल प्लेटफॉर्म का उपयोग करते हैं। अध्ययन में भाग लेने वाले लोग तृतीय श्रेणी के शहरों से लेकर महानगरों तक के थे, जिनकी आय 20,000 रुपये से लेकर 1,00,000 रुपये प्रति माह तक थी। रिपोर्ट में यह भी खुलासा हुआ है कि उक्त ईएमआई का भुगतान करने वालों में उच्च-मध्यम स्तर के कमाने वाले लोगों की संख्या सबसे अधिक पायी गई है, ये वो लोग हैं जो हाल ही में पैसा कमा कर आगे बढ़ रहे हैं और इनका देश की तरक्की में खासा योगदान है मगर अफसोस की बात यह है कि ये लोग बजाय कि बचत करने के अपनी जरूरतों को बेवजह बढ़ा कर उस पर होने वाले खर्च को करने में लगे हैं जबकि दूसरी ओर शुरूआती स्तर के कमाने वाले लोग आज भी ज्यादा खर्चा करने से कतराते हैं। गौरतलब है कि इस रिपोर्ट में खर्च को तीन व्यापक श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया– अनिवार्य खर्च (39%), आवश्यकताएं (32%) और विवेकाधीन खर्च (29%)। रिपोर्ट के अनुसार, अनिवार्य खर्च को ऋण चुकौती और बीमा पॉलिसियों के लिए प्रीमियम पर खर्च के रूप में परिभाषित किया गया है, जबकि विवेकाधीन खर्च में ऑनलाइन गेमिंग, बाहर खाने या भोजन का ऑर्डर देना, मनोरंजन आदि पर खर्च शामिल है। आवश्यकताओं में बुनियादी घरेलू जरूरतें जैसे उपयोगिताएं (पानी, बिजली, गैस, आदि), ईंधन, दवा, किराने का सामान आदि शामिल हैं। रिपोर्ट में यह भी पता लगा है कि ‘कम वेतन वाले लोग अपनी आय का ज़्यादातर हिस्सा ज़रूरी आवश्कताओं को पूरा करने या कर्ज चुकाने में लगा रहे हैं। इसके विपरीत, उच्च वेतन वाले लोग अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा अनिवार्य और विवेकाधीन खर्च में लगा रहे हैं।’ रिपोर्ट से यह भी पता लगा है कि उच्च आय वर्ग में ऋण उच्च जीवन-यापन खर्च के साथ-साथ विलासिता की वस्तुओं और छुट्टियों के प्रति बढ़ती आकांक्षाओं का संकेत है। यानि ये लोग उन गैर जरूरी खर्चों में भी लिप्त रहते हैं जिनकी कतई जरूरत नहीं होती कहने का मतलब ये खर्चे अगर वे लोग न भी करें तो भी कुछ नहीं होगा। एसे ही शुरूआती स्तर की आय श्रेणी से उच्च आय श्रेणी में आने पर विवेकाधीन खर्च 22% से बढ़कर 33% हो गया। रिपोर्ट में में दावा किया गया है कि, ‘अनिवार्य खर्चों के लिए भी यही प्रवृत्ति देखी गई है, जहां खर्च का प्रतिशत प्रवेश स्तर के आय वालों के लिए 34% से बढ़कर उच्च आय वालों के लिए 45% हो जाता है, हालांकि, आवश्यकता खर्च के लिए एक विपरीत प्रवृत्ति देखी गई है, जहां वेतन में वृद्धि के साथ खर्च किए गए धन का प्रतिशत घटता है – प्रवेश स्तर के आय वालों के लिए 44% से घटकर उच्च आय वालों के लिए 22% हो जाता है। ’ गर हम जीवनशैली से जुड़ी खरीदारी की बात करें तो इसमें यह पाया गया है कि यह विवेकाधीन खर्चों का 62% से अधिक है, उच्च आय वर्ग के लोग ऐसी वस्तुओं पर लगभग तीन गुना अधिक खर्च करते हैं (3,207 रुपये प्रति माह) जबकि प्रवेश स्तर के लोग (958 रुपये) ऐसे उत्पादों पर खर्च करते हैं। समाज में रहने वाला युवा वर्ग जिसका अनुपात कुल जनसंख्या का 60 प्रतिशत से अधिक है ज्यादा खर्चा ऑनलाइन गेमिंग पर कर रहा है इस से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह कम आय वालों या ज्यादा आय वालों से ताल्लुक रखता है। उसके खर्च का प्रतिशत 22% के बीच है, वहीं ज्यादा आय वालों के लिए यह अनुपात घटकर 12% रह गया है। उनकी रूचि यहां से धीरे धीरे शिफ्ट हो रही है। अध्ययन में यह भी पाया गया कि द्वितीय श्रेणी के शहरों में रहने वाले लोग चिकित्सा पर सबसे अधिक खर्च करते हैं, जो कि प्रथम श्रेणी के शहरों की तुलना में औसतन 20% अधिक प्रति माह है। इसका मतलब है हुआ कि लोगों का रहन सहन और खान पान सही नहीं है। उन्हें रोजमर्रा के जीवन में भी दवाओं और चिकित्सकों का सहारा लेना पड़ता है जिसमें मेडिकलेम पर लगने वाले प्रीमियम की राशि भी शामिल है। इसी प्रकार रिपोर्ट में यह भी पाया गया कि वेतनभोगी व्यक्ति अपनी आय का औसतन 34-45% अनिवार्य खर्च, 22-44% आवश्यकताओं और 22-33% विवेकाधीन खर्च के लिए आवंटित करते हैं, हालांकि, यह विभिन्न वेतन वर्गों में भिन्न होता है। रिपोर्ट में कहा गया है, ‘एम्बेडेड फाइनेंस, पीयर-टू-पीयर लोन और क्रेडिट कार्ड तथा अन्य पारंपरिक ऋण श्रेणियों जैसे कि होम लोन, शिक्षा लोन और ऑटो लोन के माध्यम से व्यक्तिगत लोन के बढ़ने से विवेकाधीन खर्च और भविष्य के दायित्वों के बीच का अंतर कम हो गया है यानि हर व्यक्ति पर किसी न किसी प्रकार का दबाव पड़ा हुआ है। वह स्ट्रैस में जी नहीं जीवन काट रहा है। उक्त सभी बातों से एक बात उभर कर सामने आई है जो चिंता का विषय भी है वह यह है कि हर किसी की बचत में भारी गिरावट देखने को मिल रही है। यानि कि हर कोई जो कुछ कमा रहा है अपने लिए नहीं बल्कि पदार्थवाद में सक्रिय बाजारवाद के लिए कमा रहा है। आरबीआई के आंकड़ों के अनुसार, भारत की घरेलू बचत पांच साल के निचले स्तर पर आ गई है, जो जीडीपी का मात्र 5.1% है. यह खपत में वृद्धि के बावजूद है। घरेलू परिसंपत्तियों में गिरावट व्यक्तिगत ऋणों में वृद्धि के साथ हुई है, जो साल-दर-साल 13.7% की दर से बढ़े हैं। परफियोस के मुताबिक उपभोग में वृद्धि हो रही है, मगर कम बचत से परिवारों पर दबाव बढ़ रहा है जो समाज के लिए अच्छा नहीं है। इससे मानसिक और शारीरिक रोगियों की संख्या में भी इजाफा हो रहा है हर कोई कर्जे में फंसा बैठा है इस को लेकर देश और राज्य की सरकारों को ध्यान देना होगा।