हुई सुबह
जालिम भ्रष्टाचार
अलसाया सा
छोटी सी खोली
सर्दी से बचाती ये
धीमी रोशनी
अपनी माटी
जीवन-गोधूलि में
खूब रुलाती
निसंग तन
बहुत सी चीज़ों से
ऊपर मन
सफेदपोश
कोयले की कालिख़
उड़ाए होश
समझे बिन
बीत गया जीवन
क्या करूं अब
साफ़ नीयत
चल रही शाश्वत
खुली बहस
रंगीन टीवी
ग़रीबी की धुंध में
इंद्र धनुष
रुकेंगे भाव
सार्थक जब धुले
मन का कोना
डूबी गगरी
ग़रीबी हुई अब
और गहरी