सुनो
क्या सुना है
तुमने मुझे कभी
हर देव दर पे
जब भी गई
शब्दों की झोली
भर ले गई
सुना ही होगा तुमने
कुछ शब्द निकलकर
जरूर तुम तक पहुँचे होंगे
देखा तो होगा तुमने
झुका शीश तुम्हारे सामने नहीं ?
अच्छा ....
तो क्या देखे नहीं तुमने प्रार्थना में जुड़े मेरे दोनों हाथ भी कभी
जरूर ही देखा होगा तुमने मेरा नवाया शीश ,जुड़े हाथ
घुटनों और पैर के बल
धरती पे
तुम्हें नमन करते
शब्दों की भरी पोटली
छोड़ देती थी तुम्हारे दर
कुछ शब्द तो उड़कर जरूर पहुँचे होगें तुम तक
बताना जरूर
आस की पतली डोर
अभी भी पकड़ रखी है
क्या सचमुच
तुमने कुछ नहीं देखा
कुछ नहीं सुना
मेरा मौन भी नहीं
मेरे बंद नेत्र भी नहीं
मेरा सशरीर समर्पण
कुछ भी नहीं
अंतहीन आस अब बोझ बनती जा रही है
मैं भी जा रही हूं
निमीलित नेत्र लेकर
कुचली हुई आस
अनंत निद्रा में सौंप
वक़्त के चीर को
पीछे मुड़कर न देखने की कसम के साथ
धीरे धीरे उठते कदमों से
उड़ने लगी हूँ मैं
सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होती हुई अनंत में बिंदु बन
तारों के झुरमुट में
एक और.....