वर्तमान में भारतीय राजनीति के समक्ष विद्यमान विभिन्न प्रासंगिक चुनौतियों की जड़ें उम्मीदवारों के चयन और दलीय चुनावों में इंट्रा-पार्टी/अंतर-दलीय लोकतंत्र की कमी में ढूँढी जा सकती हैं । इंट्रा-पार्टी/अंतर-दलीय लोकतंत्र के अभाव ने राजनीतिक दलों को संकीर्ण निरंकुश संरचनाओं में बदल दिया है। यह नागरिकों के राजनीति में भाग लेने और चुनाव लड़ सकने के समान राजनीतिक अधिकार पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। इससे मजबूत जमीनी संपर्क या जनाधार रखने वाले नेता को दल में दरकिनार नहीं किया जा सकेगा। जो पार्टी के भीतर गुटबाजी और विभाजन का खतरा कम करेगा। पारदर्शी प्रक्रियाओं के साथ एक पारदर्शी दलीय संरचना, उपयुक्त टिकट वितरण और उम्मीदवार चयन को बढ़ावा देगी। ऐसे चयन पार्टी के कुछ शक्तिशाली नेताओं की इच्छा पर आधारित नहीं होंगे, बल्कि वे समग्र रूप से पार्टी की पसंद का प्रतिनिधित्त्व करेंगे। एक लोकतांत्रिक दल अपने सदस्यों के प्रति उत्तरदायी होगा, क्योंकि अपनी कमियों के कारण वे आगामी चुनावों में हार सकते हैं।प्रत्येक राजनीतिक दल की राज्य और स्थानीय निकाय स्तर की इकाइयाँ होती हैं। दल में प्रत्येक स्तर पर चुनाव का आयोजन विभिन्न स्तरों पर शक्ति केंद्रों के निर्माण का अवसर देगा। इससे सत्ता या शक्ति का विकेंद्रीकरण हो सकेगा और जमीनी स्तर पर निर्णय लिये जा सकेंगे। चूँकि भारत में चुनाव से पूर्व उम्मीदवारों को टिकटों के वितरण हेतु कोई सुव्यवस्थित प्रक्रिया मौजूद नहीं है, इसलिये उम्मीदवारों को बस उनके जीत सकने की क्षमता की एक अस्पष्ट अवधारणा के आधार पर टिकट दिये जाते हैं। इससे धनबली-बाहुबली अथवा आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों के चुनाव मैदान में उतरने की अतिरिक्त समस्या उत्पन्न हुई है। यह भी सच है कि अंतर-दलीय लोकतंत्र की कमी ने राजनीतिक दलों में भाई-भतीजावाद की प्रवृति में योगदान दिया है। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं द्वारा अपने परिवार के सदस्यों को चुनाव मैदान में उतारा जा रहा है। वर्ष 1985 में अधिनियमित दल-बदल विरोधी कानून, राजनीतिक दलों के निर्वाचित सदस्यों को राष्ट्रीय और राज्य विधानमंडलों में अपने व्यक्तिगत पसंद या विवेक से मतदान करने से अवरुद्ध करता है। वर्तमान में भारत में राजनीतिक दलों के आंतरिक लोकतांत्रिक विनियमन के लिये कोई स्पष्ट प्रावधान मौजूद नहीं है और एकमात्र शासी कानून लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 29अ द्वारा प्रदान किया गया है, जो भारतीय निर्वाचन आयोग में राजनीतिक दलों के पंजीकरण का प्रावधान करता है। प्राय: आम लोगों में नायक पूजा की प्रवृत्ति होती है और कई बार पूरी पार्टी पर कोई एक व्यक्तित्व हावी हो जाता है जो अपनी मंडली बना लेता है, जिससे सभी प्रकार के अंतर-दलीय लोकतंत्र का अंत हो जाता है। भारतीय विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट में आयोग ने माना था कि कोई राजनीतिक दल, जो अपने आंतरिक कार्यकरण में लोकतांत्रिक सिद्धांतों का सम्मान नहीं करता है, उससे देश के शासन में मौजूद आधारभूत सिद्धांतों का सम्मान करने की आशा और अपेक्षा नहीं की जा सकती है। यह राजनीतिक दलों का कर्तव्य है कि सभी स्तरों पर चुनाव आयोजन सुनिश्चित करने हेतु उचित कदम उठाए जाएँ। राजनीतिक दलों को निर्वाचन आयोग द्वारा नामित पर्यवेक्षकों की उपस्थिति में राष्ट्रीय और राज्य स्तर के आंतरिक चुनाव संपन्न कराने चाहिये। दल-बदल विरोधी कानून, 1985 पार्टी के निर्वाचित सदन सदस्यों को पार्टी व्हिप- जो शीर्ष नेतृत्त्व के फरमानों पर तय होते हैं, के अनुरूप कार्य करने को बाध्य करता है। महिलाओं, अल्पसंख्यकों और पिछड़े समुदाय के सदस्यों के लिये सीटें आरक्षित की जा सकती हैं। सभी राजनीतिक दलों के लिये यह अनिवार्य किया जाना चाहिये कि वे निर्धारित समय सीमा के भीतर अपने व्यय का विवरण भारतीय निर्वाचन आयोग को प्रस्तुत करें। समय पर या निर्धारित प्रारूप में ये विवरण जमा नहीं करने वाले राजनीतिक दलों पर भारी जुमार्ना लगाया जाना चाहिये। स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से चुनाव आयोजित नहीं करने पर निर्वाचन आयोग के पास दल का पंजीकरण रद्द करने की दंडात्मक शक्ति होनी चाहिये। राजनीतिक दल ही देश में लोकतंत्र के क्रियान्वयन के प्रमुख माध्यम होते हैं। राजनीतिक दलों के भीतर आंतरिक लोकतंत्र और पारदर्शिता का प्रवेश वित्तीय और चुनावी जवाबदेही को बढ़ावा देने, भ्रष्टाचार को कम करने और समग्र रूप से देश के लोकतांत्रिक कार्यकरण में सुधार लाने हेतु महत्त्वपूर्ण है। यह आवश्यक है कि राजनीतिक दल चुनावी राजनीतिक सुधारों की लगातार बढ़ती मांगों पर विचार करें और अंतरा-दलीय लोकतंत्र लाने की दिशा में कदम उठाएँ।