दर्पण न्यूज़ सर्विस
चंडीगढ़, 29 नवंबरः ‘नेचुरल फार्मिंग’ या प्राकृतिक खेती पारंपरिक और आधुनिक कृषि अभ्यासों- दोनों में सुधार के लिये एक नया दृष्टिकोण है, जो पर्यावरण, सार्वजनिक स्वास्थ्य और समुदायों की रक्षा पर लक्षित है। इसमें भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकताओं से समझौता किये बिना खाद्य उत्पादन को सक्षम करने की क्षमता है। इससे बेहतर स्वास्थ्य सुनिश्चितता, किसानों की आय में वृद्धि, मृदा स्वास्थ्य का पुनरुद्धार और उत्पादन की न्यूनतम लागत होते हैं।
इसके अलावा नेचुरल फार्मिंग का बजट ज़ीरो होता है। यह कृषि-पारिस्थितिकी पर निर्भर करता है। यह सतत्/संवहनीय कृषि अभ्यासों पर आधारित रसायन मुक्त खेती का आह्वान करता है। 1990 के दशक के मध्य में सुभाष पालेकर ने इसे हरित क्रांति में व्यवहृत रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों तथा सघन सिंचाई विधियों के विकल्प के रूप में विकसित किया था। इस मॉडल का लक्ष्य उत्पादन लागत को कम करना और हरित क्रांति से पहले की कृषि पद्धतियों पर वापस लौटना है जहाँ उर्वरक, कीटनाशक और सिंचाई जैसे महंगे इनपुट की आवश्यकता नहीं होती है।
हमारे देश में खेती से संबंधित कई चुनौतियाँ होती हैं। इनमें प्रति बूंद अधिक फसल, प्राकृतिक आदानों की तत्काल उपलब्धता का अभाव, फसल विविधीकरण का अभाव और पैदावार में गिरावट आदि शामिल रहते हैं। उक्त चुनौतियों के मद्देनजर सरकार ने कृषि के क्षेत्र में कई पहल की हैं जिनमें मुख्यतः राष्ट्रीय सतत् कृषि मिशन, परंपरागत कृषि विकास योजना , कृषि वानिकी पर उप-मिशन , राष्ट्रीय कृषि विकास योजना और पूर्वोत्तर क्षेत्र के लिये जैविक मूल्य शृंखला विकास मिशन शामिल हैं।
मौजूदा हालात में अब जरूरत है नेचुरल फार्मिंग में महिलाओं की भागीदारी की। विभिन्न अध्ययनों में प्राथमिक उत्पादक के रूप में कृषि संसाधनों पर महिलाओं के नियंत्रण और उनके परिवार की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के बीच सीधा संबंध देखा गया है।चूँकि महिलाएँ ही अधिकांशतः अपने परिवारों के लिये खाना बनाती हैं, इसलिये वे अपने बच्चों के पोषण के लिये प्राकृतिक उत्पादों के महत्त्व को समझती हैं। इस परिदृश्य में महिलाओं द्वारा पुरुषों की तुलना में नेचुरल फार्मिंग को जल्द अपनाने की संभावना अधिक है। नेचुरल फार्मिंग में महिलाओं की भागीदारी से निर्णय लेने में उनकी भागीदारी बढ़ेगी। यह परिवार के स्वास्थ्य और पोषण की स्थिति पर भी सकारात्मक प्रभाव डालेगा।
इसके अलावा पारंपरिक और अग्रणी तकनीकों का एकीकरण भी नेचुरल फार्मिंग में काफी आवश्यक है। वर्षा जल संचयन, पादप पोषण के लिये जैविक अपशिष्ट का पुनर्चक्रण, कीट प्रबंधन आदि पारंपरिक तकनीकों के उदाहरण हैं जिनका उपयोग उच्च उत्पादकता प्राप्त करने के लिये टिशू कल्चर, जेनेटिक इंजीनियरिंग जैसी अग्रणी तकनीकों की पूरकता के लिये किया जा सकता है।
यह भी सच है कि भारत कृषि पद्धतियों की विविधता के लिये जाना जाता है, जो उपयुक्त समाधान खोजने के लिये राष्ट्रीय कृषि संवाद में विविध दृष्टिकोणों को शामिल करना महत्त्वपूर्ण बनाता है।एक प्राकृतिक दृष्टिकोण के साथ संतुलित हाई-टेक खेती की दिशा में कुशल और सटीक कदम आगे बढ़ाने से किसानों की आय में वृद्धि होगी और स्केल संबंधी कई अन्य मुद्दों को संबोधित किया जा सकेगा। रसायन मुक्त कृषि के लिये इनपुट्स का उत्पादन करने वाले लघु उद्यमों को सरकार द्वारा सहायता दी जानी चाहिये ताकि प्राकृतिक इनपुट की अनुपलब्धता की चुनौती को दूर किया जा सके। नेचुरल फार्मिंग को बढ़ावा देने के लिये ग्रामीण स्तर पर इनपुट तैयार करने और बिक्री की दुकानों की स्थापना के साथ जोड़ा जाना चाहिये।
अंततः हम यह कह सकत हैं कि कृषि उत्पादकता और प्रकृति के संरक्षण के बीच पारस्परिक रूप से सुदृढ़ संबंधों का विकास आवश्यक है। खेती प्रणालियों को एक प्रतिकृति प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र बनाने के लिये उनमें संशोधन किये जा सकते हैं। पारिस्थितिक और आर्थिक रूप से उपयोगी पेड़, झाड़ियाँ और बारहमासी घासों को खेतों में इस प्रकार एकीकृत किया जा सकता है जो प्राकृतिक वनस्पति संरचना का अनुकरण करते हैं।