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लेख

देश में निरंतर बढ़ती असमानता के लिए देश के नेता, कर्मचारी और हम सब लोग बराबर के जिम्मेदार : डॉ. दलेर सिंह मुल्तानी, सिविल सर्जन (सेवानिवृत्त)

February 02, 2022 08:48 PM

हमारे देश में लोकतंत्र के वजूद में आने पर हर किसी के मन में एक उम्मीद जगी थी समानता की अर्थात हमें आशा थी कि हर कोई बराबर होगा और देश के प्रति हर एक की जिम्मेवारी भी एक सी रहेगी, मगर यह किसी ने नहीं सोचा था कि बदलते वक्त ने असमानता को न केवल जन्म दिया बल्कि यह असमानता निरंतर बढ़ती ही चली गई और इसका बढ़ना आज भी बदस्तूर जारी है। आज हालात इस कदर बदतर हो चुके हैं कि नेता, कर्मचारी वर्ग और आम जनता सब पर लूट-खसूट करने के खुलेआम आरोप लगने लगे हैं, ताज्जुब की बात तब होती है कि जब बावजूद इस कुरीति के इसकी जिम्मेवारी लेने को कोई तैयार नहीं होता। इतना ही नहीं लोकतंत्र का तीसरा और चौथा स्तंभ माने जाने वाले न्यायपालिका और मीडिया पर भी अपेक्षित कार्रवाई न करने के आरोप लगने लगे हैं जो समझ से परे नजर आता है।

असल में मुद्दा तो यह है कि गर एक खराब अथवा बिगड़ा हो तो उसे सब समझा कर ठीक कर सकते हैं गर सभी बिगड़ अथवा खराब हो चुके हों तो उन्हें कौन, कैसे और क्योंकर ठीक करेगा?

गर मौजूदा हालात पर गंभीरता से विचार करें तो पायेंगे कि आज हर कोई आरोपों के शोर-ओ-गुल में बोलने लगा है कि देश में लोकतंत्र नहीं बल्कि गुंडा राज चल रहा है मगर उसी कथित गुंडे राज का हर कोई हिस्सा भी बन कर बैठा है, जब उसी शोर मचाने वाले शख्स से इसका समाधान पूछें तो कहने लगता है कि छोड़ो मैने क्या लेना है। जबकि वास्तविक्ता यह है कि हम चाह कर भी अपने कर्तव्य से विमुख नहीं हो सकते। लोकतंत्र में चलो छोड़ो मैने क्या लेना की आदत महज बोलने में अच्छी लगती है मगर जब इसी सिस्टम में हमारा अपना शोषण होता है तो हम औरों पर लोकतंत्र में छेड़-छाड़ अथवा पक्षपात के गंभीर आरोप लगाने में देर नहीं करते। हम सब को उक्त छोड़ो मैने क्या लेना की आदत को छोड़ कर उक्त लोकतंत्र का हिस्सेदार बनना चाहिए।

समाज अथवा देश में जब असमानता की खाईयां गहराने लगती हैं तो अमीर और गरीब के बीच का अंतर बढ़ना लाजमी हो जाता है। जहां धनी नेताओं, कर्मचारी वर्ग के वेतनों में बड़ा अंतर गहराता जा रहा है तो वहीं आम जनता के मौलिक अधिकारों का हनन और धर्मों, जातियों के बंटवारे कर वोट बटोरने की घटनाएं भी जन्म लेने लगती हैं। स्वास्थ्य तथा शिक्षा जो लाजमी होने चाहिए किसी देश अथवा समाज को प्रगति की पटरी पर लाने के लिए, जानबूझ कर इन्हें दरकिनार किया जा रहा है।

आज समाज की सेवा करने वाले नेता लोग अपने आप को आम जनता के राजा समझने लगे हैं। विभिन्न नेता, विधान सभा तथा लोक सभा में कानून बनाने पर करोड़ों अरबों रु खर्च करते हैं मगर अपने फायदे के लिए प्रत्येक बनाए गये कानून को तोड़ कर निजी हितार्थ या वोट बटोरने के लिए इसका दुरोपयोग करने से गुरेज नहीं करते।  ये नेता आम जनता से इकट्ठा किये टैक्स के पैसे से अपने क्षेत्र, धर्म, जाति और समाज के लोगों को निशुल्क सुविधाएं दे कर उन्हें न केवल निठल्ले बना रहे हैं बल्कि उन्हें मुफ्त आटा, दाल के दान प्राप्त करने तक ही सीमित कर रहे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि इज्जत की जिंदगी जीने के लिए रोजगार चाहिए न कि मुफ्त में दान।

देश के सरकारी विभागों को संभालने वाले कर्मचारी तो नेताओं से भी दो कदम आगे नजर आते हैं। सरकार के बनाये गये जिन नियमों-कानून अथवा स्कीमों को आम जनता तक समय पर पहुंचाना होता उन्हें वे जानबूझ कर लेट करते हैं या फिर पैसे के लालच के चलते  इन जनकल्याणकारी स्कीमों को फाइलों में ही दबाये रखते हैं और ठंडे बस्ते में डाल देते हैं इन्हें समय पर लागू होने ही नहीं देते हैं। नतीजा उक्त स्कीमें समय पर आम जनता तक नहीं पहुंच पातीं जिसका बड़ा नुकसान देश की आम जनता को उठाना पड़ता है। इसका खामियाजा  कई बार उक्त दोषी कर्मचारियों को भी भुगतना पड़ता है।

गर हम सारा कसूर नेताओं और सरकारी विभागों के कर्मचारियों पर ही थोपते रहेंगे तो यह भी सही नहीं होगा। मान लिया कि नेता और कर्मचारीअपनी ड्युटी में कोताही बरतते हैं मगर आम जनता में भी ज्यादातर लोग आज स्वार्थी हो चुके हैं । चुनावों के दौरान आम जनता के पास सब से बड़ा हथियार वोट डालने का होता है जिसका भी वे जाति,धर्म, पैसे और शराब के लिए प्रयोग करते हैं और फिर अपने गलत फैसले के चलते पांच साल तक पछताते हैं।

अब बात करते हैं समाज, देश अथवा राज्य में सदैव नजर रखने वाले हैं मीडिया और न्यायपालिका की। इन पर भी सब कुछ जानते हुए मौन धारे बैठने के आरोप लगते आये हैं।

विज्ञापनों के दबाव में आ चुके और निष्पक्षता को तिलांजलि देता मीडिया आज समाचार बनाने और दिखाने में लगा है इससे मीडिया की छवि धूमिल हुई है। ठीक वैसे ही माननीय न्यायालयों में अंडर स्टाफ के चलते केसों की पैंडेंसी इतनी पड़ी है कि कई मामलों में जस्टिस डिले वाली कहावत यर्थाथ होती नजर आती है। 

इसमें कोई दो राय नहीं कि लोकतंत्र में लोगों का लोकतंत्र के प्रति वफादार होना जरूरी है और जनता को नेताओं का चुनाव जाति, धर्म, पैसे और क्षेत्रवाद से ऊपर उठकर नेताओं के गुणों के आधार पर वोट डाल कर करना चाहिए मगर वास्तव में यह नहीं हो रहा है जिसके लिए हम सब लोग जिम्मेदार हैं।

हमें ध्यान रखना चाहिए कि जो नेता जीत कर आये तथा जो कुर्सी उसे मिले उस के साथ वह पूर्ण न्याय करे मगर वास्तव में सब कुछ हो इसके उल्ट रहा है, कई नेता कुर्सी पर बैठ कर जम कर इसका दुरोपयोग करते हैं। विदेशों की तरह हमारे देश में भी जो भी नेता चुन कर आये उसको अपने विभाग का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए, इसके अलावा नेता की ईमानदारी और काम करने की यथाशक्ति समाज को कल्याणाकारी यकीनन बना सकती है।

हमारा देश एक धार्मिक आस्था वाला देश है और इस लिए हमें अपना धर्म अपने काम को और काम करने वाली जगह को अपना मंदिर मानना चाहिए।

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