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लेख

क्या वाकई हम आधी अधूरी आज़ादी के साथ जी रहे हैं? : डॉ. दलेर सिंह मुल्तानी, सिविल सर्जन (सेवानिवृत्त)

September 02, 2021 08:08 PM

हमारा देश 1947 में आज़ाद हुआ और आज पौनी सदी बीत जाने के बाद भी हम सब स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए जूझ रहे हैं इतना ही नहीं व्यापक स्तर पर मानवाधिकारों का हनन किसी से छिपा नहीं है। जहां एक ओर आम आदमी रोजमर्रा की जरूरतों के लिए जद्दोजहद करता नजर आता है तो वहीं दूसरी ओर चंद मुट्ठी भर लोग जो अपने आप को वी.आई.पी. की श्रेणी में गिनते हैं समूचे प्रबंधकीय ढांचे पर सांप की कुंडली की भांति नियंत्रण करके बैठे हैं।
याद रहे हाल ही में कुछ दिन पहले हमारी माननीय सर्वोच्च न्यायालय के माननीय चीफ जस्टिस द्वारा पुलिस स्टेशनों पर वह महत्वपूर्ण टिप्पणी कि सब से ज्यादा मानवाधिकारों का हनन पुलिस थानों में होता है, इससे ज्यादा लोकतंत्र में शर्मनाक तथा निंदनीय कुछ और हो ही नहीं सकता। हमारे देश में घटने वाली विभिन्न घटनाएं जिनमें रातों-रात सरकारों का बदल जाना, आधी रात को बलात्कार से पीड़ित बेटी का संस्कार किया जाना, वेतन के लिए संघर्ष करने वालों को सड़कों पर पुलिस की लाठियों का प्रसाद मिलना, आवश्यक स्टाफ की कमी के चलते लाखों मामलों का विभिन्न न्यायालयों में पैंडेंसी के रूप में पड़ा रहना, बुजुर्गों का स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए जद्दोजहद करना, गर्भवती महिलाओं की डिलीवरी तलक सड़कों पर हो जाना, आज भी करोड़ों लोगों का रात को भूखे ही सोने पर मजबूर होना, उपभोक्ताओं का बिजली पानी की सुविधाओं के लिए गिड़गिड़ाना, कीमती वक्त का धर्म और जाति के पचड़ों में ही बर्बाद हो जाना आदि आदि गर मौजूदा लोकतंत्र की परिभाषा के आयने हैं तो शायद अब वाक्या ही वक्त आ गया है कि इस परिभाषा को बदल दिया जाये। बहुत हो चुका और नहीं होना चाहिए।
सब जानते हैं कि किसी भी सरकारी अथवा अर्धसरकारी कार्यालय में सिवाय बेवजह के धक्कों के और कुछ नसीब नहीं होता। कोर्ट में जाओ तो ज्यादा केसों की भीड़ के चलते अगली सुनवाई के लिए अगली तरीक ही मिलती है। सरकारी कार्यालयों में बिना पैसे और अपरोच के कोई काम नहीं बनता। आम जनता पुलिस थानों में जाने से कतराती ही नहीं घबराती भी है। डी.सी., एस.डी.एम., बी.डी.ओ. अपने अपने वातानुकूलित बंद कमरों से बाहर निकलते हुए सोचते हैं जबकि आम जनता न्याय की गुहार लगाती लगाती थक जाती है जबकि कानून की उल्लंघना करने वालों को ज्यादातर मामलों में न तो कोई सजा नहीं मिलती है और न ही वे किसी से डरते हैं और बेलगाम घोड़े की तरह मनमानी करते जाते हैं।
मैं स्वयं 33 वर्ष सरकारी पद पर तैनात रहा हूं एक सच्चे सिपाही की तरह। मैं स्वास्थ्य विभाग पंजाब में मेडिकल आॅफिसर, सीनियर मेडिकल आॅफिसर भी रहा हूं और अंत में सिविल सर्जन  के पद से रिटायर हुआ हूं अतैव अपने साढ़े तीन दशकों के लंबे तजुर्बों के आधार पर कह सकता हूं कि जैसे जैसे मेरा काम करने का दायरा अथवा अधिकार क्षेत्र बढ़ता गया वैसे वैसे राजनेताओं की दखलंदाजी मेरे रोजमर्रा के कामों में भी बढ़ती गई। सत्तारूढ़ पार्टी किसी कायदे कानून को मानने को तैयार ही नहीं होती थी फर्क नहीं पड़ता सत्ता में कौन सी पार्टी वजूद में रही हो। सब के चेहरे भिन्न होते थे मगर फिदरत एक सी ही रहती थी।
 प्रत्येक छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा नेता प्राय: काम  में अनआवश्यक दखलंदाजी करता रहता इतना ही नहीं कई बार तो जबरदस्ती करने का प्रयास भी करते थे कि अमुक काम उन्हीं के मुताबिक ही होना चाहिए। गर मैने कभी किसी नेता को कानून याद दिलाने की कोशिश की तो वक्त से पहले मुझे अपने पद से बोरीया बिस्तरा गोल यानि अगले तबादले के लिए नये स्टेशन के लिए तैयारी रखनी पड़ी, भले ही वह तत्कालीन सर्विस रूल्स के खिलाफ ही क्यों न था मगर हां राजनीति में कानून तो नेताओं की जेब में होते हैं यही कहावत हर नेता ने मुझे सुनायी प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से। यही वजह है कि सरकारी मुलाजिम आज भी अपने तबादले से डरता है और नेताओं के हर हुक्म को सत वचन की भांति मानता है जबकि दूसरी ओर आम आदमी जो सरकारी मुलाजिम नहीं है अपने हकों अथवा न्याय के लिए सड़कों पर बेवजह डंडे खाता रहता है या फिर रिश्वत का सहारा लेकर न्याय की तलाश में दर ब दर ठोकरें खाने को मजबूर रहता है।
लोकतंत्र के हनन का एक बड़ा उदाहरण सड़कों पर न्याय की तलाश घर से बेघर हुए लाखों किसान देखे जा सकते हैं जो गर्मी-सर्दी और फिर गर्मी व बारिश के मौसमों की मार झेलते हुए देश की राजधानी दिल्ली की सीमा पर सड़कों किनारे खुले आसमान के तले बैठे हैं जबकि मौजूदा केंद्र सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही।
50 वर्ष हो गये गरीबी हटाओं का नारा लगाते हुए, गरीबी तो नहीं हटी मगर आम आदमी को आटा दाल के चक्करों में सरकारों ने जरूर डाल दिया है। गरीबों बेसहारा लोगों को एक चाल के तहत मुफ्त में राशन बांट बांट कर निकम्मा बनाने में लगी हैं सरकारें ताकि उन्हें मुफ्तखोरी का कुष्ट रोग लगा रहे और वे उन पर आजीवन निर्भर रहें।
नेता हर पांच साल बाद चुनाव मेनिफेस्टो के रूप में झूठों का पुलिंदा तैयार करते हैं आम वोटरों को मूर्ख बनाते हैं और जीतने के बाद पांच साल की अवधि पूरे आनंद से बिताते हैं और जाते हुए अगले चुनावों में अपने ही दूसरी पार्टी के साथी के हाथ वही चुनावी मेनिफेस्टो रूपी झूठ की बुनियाद पर आधारित चाबियां पकड़ा कर आगे चले जाते हैं मासूम अनपढ़ जनता उनके हथकंडों से नावाकिफ रहती है और हर पांच साल के लिए उनके झूठे वायदों के चक्कर में फंस जाती है। जो पार्टी सत्ता में आती है वह पूर्व सरकार पर खजाने खाली कि ये जाने के निराधार आरोप लगाती है और इन्हीं की एवज में खजाने भरने का भ्रम फैला कर आम जनता पर दबा कर टेक्स थोपची है बेचारी जनता फिर से सरकारों के खजाने भरने में लग जाती है जो कभी नहीं भरते और न ही उन से आम जनता का व्यापक भला होता है सिवाय सरकार से जुड़े चंद मौकापरस्तों के।
गौरतलब है कि वर्ष 1947 वाली आजादी केवल अंग्रेजों से छुटकारा था न कि उस लोकतंत्र से जो आज हर कदम पर फेल होता नजर आ रहा है। आज जरूरत है एक नये रूप में लोकतंत्र की जिसमें :-
-चुनाव मेनिफेस्टो एक कानूनी दस्तावेज होना चाहिए ताकि नेताओं के  झूठों को कचहरी में खड़ा किया जा सके।
-नेताओं अथवा मुलाजिमों को रिश्वत की सख्त से सख्त सजा मिले इतना ही नहीं जिस नेता अथवा मुलाजिम की रिश्वत पकड़ी जाये उसकी सारी जायदाद सरकारी खाते में जब्त कर ली जानी चाहिए।
-लोक राज में एक नेता को किसी खास अहुदे पर दो बार से ज्यादा कुर्सी नहीं दी जानी चाहिए ताकि नेतृत्व में नवीनीकरण की धारणा को अमल में लाया जा सके।
-धर्म तथा राजनीति दोनों अलग अलग होने चाहिएं। धर्म के आधार पर वोट मांगने वालों पर आजीवन राजनीति में प्रवेश पर रोक लगनी चाहिए।
-नोटा को कानूनी मान्यता मिलनी चाहिए ताकि पार्टियों को अच्छे और ईमानदार छवि वाले नेताओं को चुनाव लड़ाने के लिए विवश किया जा सके।
-वोटर कार्ड को आधार कार्ड के साथ जोड़ा जाना चाहिए ताकि वोटों की नकल हो ही न सके।
-किसी भी पार्टी को टेक्स के पैसे से चुनाव के दौरान निशुल्क सुविधाओं की घोषणा करने पर खास तौर पर रोक लगायी जानी चाहिए।
-नेताओं के वेतन, पेंशन पे कमिशन के तहत लगने चाहिएं और एक पेंशन स्टेट या सेंटर से मिलनी चाहिए ज्यादा पेंशनों पर पूर्णतया रोक लगनी चाहिए।
-पार्टी चुनाव निशान पर जीते हुए नेताओं को पार्टी बदलने का अधिकार कतई नही होना चाहिए। भले ही एक या ज्यादा नेताओं ने पार्टी बदली हो। गर पार्टी बदलनी है तो जीती हुई सीट को छोड़ कर नयी पार्टी से चुनाव लड़ने का नियम होना चाहिए।
-प्रत्येक चुनाव से तीन महीने पहले राज्य को राज्यपाल अथवा राष्ट्रपति शासन के अधीन सौंप देना ताहिए ताकि सभी राजीनीतिक पार्टियों को बराबर का मौका मिल सके न कि सत्ताधारी पार्टी ही केवल सरकारी मशीनरी का प्रयोग कर सके।
समय के तहत वोटरों का भी जागरूक होना जरूरी है तथा उन्हें धर्म, पैसे, परिवार से ऊपर उठ कर नेताओं के कामों के आधार पर वोट डालनी चाहिए ताकि सही व सच्चे लोक तंत्र का आनंद व लाभ सभी बराबर उठा सकें।

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