इस में कोई दो राय नहीं कि गर जनता की जागरूकता से देश तरक्की के मार्ग पर अग्रसर रहता है यद्यपि लोग अपने हक के लिए आवाज़ उठाने लगें तो मान लो देश सही पटरी पर बढ़ चला है। इसके साथ ही यह भी सच है कि जब जनता अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाती है तो सत्तारुढ़ उसका विरोध करने लगते हैं। मौजूदा हालातों और परिस्थितियों से यही कुछ होता महसूस हो रहा है। देश की जनता जैसे जैसे जागरूकता की ओर बढ़ रही है सत्ताआसीन लोगों ने जागरूक लोगों को दबाने के लिए बराबर हथियार खड़े कर लिए हैं और उनकी हर कोशिश है कि देश हित्त में जागरूकता लाने वालों की आवाज़ को बुलंद होने से पहले ही या दबा दो या फिर खामोश कर दो।
कई बार तो ऐसा प्रतीत होता है कि मानो सत्ताधारी नेताओं ने सारी व्यवस्था का नियंत्रण अपने हाथों में ले लिया हो-भले ही योजनाएं बनानी हों या उनको चलाने के लिए क्रियान्वित करना हो। प्रबंधकीय ढांचा पटवारी से डी.सी. तक तथा चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी से जिला स्तरीय अधिकारी तथा राज्य अथवा राष्ट्रीय स्तर के अधिकारियों तक सबने अपने आसपास अच्छेद दीवार बना कर आम जनता को दूर कर दिया है जो मौजूदा लोकतंत्र में अजीबोगरीब अफसरशाही का नमूना दर्शाता है।
अब सवाल यह उठता है कि नेताओं,अधिकारियों तथा कर्मचारियों द्वारा अपने आसपास बनायी दीवार को जागरूक लोग जबरदस्ती गिरायें या फिर कानून के दायरे में रहते हुए आवश्यक बदलाव लायें ताकि सत्ताआसीनों और आम जनता के बीच के फर्क और दूरियों को समय के रहते मिटाया जा सके। वक्त गवाह है कि पिछले कुछ समय से कुछ तथाकथित समाज सुधारक नेताओं ने सोशल पुलिसिंग का जो रुझान पकड़ा है उस पर भी सवालिया निशान लगना लाजमी है। गर हम बात करें सरकारी कार्यालयों की तो इनका माहौल और भी बिगड़ता जा रहा है खास करके डाक्टरों से अस्पतालों अथवा कलीनिकों का, जहां डाक्टरों के काम में सीधे दखलअंदाजी और फिर सोशल मीडिया तथा बदनामी खुलेआम हो रहे हैं जो कोई अच्छी बात नही है। अस्पतालों में लोग दाखिल होते हैं बहुत बीमार या नाजुक हालत में जहां उन्होंने सीधे तौर पर डाक्टर तथा डाक्टरी व्यवसाय से जुड़े लोगों की देख रेख की जरूरत होती है। कई बार हालात इतने नाजुक होते हैं कि अस्पताल अथवा कलीनिक आने वाले रोगी की बीमारी डाक्टर की समझ से बाहर या बीमारी की गंभीरता इतनी होती है कि डाक्टर चाह कर भी रोगी को बचा नहीं सकते। इसे मृतक रोगी के परिजन डाक्टर की लाप्रवाही कह कर डाक्टर तथा स्टाफ के साथ मार कुटाई तथा अस्पतालों का बड़ा नुकसान करते हैं। इससे जहां डाक्टरी व्यवसाय को नुकसान तथा उसमें काम करने वाले विशेषज्ञों का शारीरिक नुकसान होता है वहीं उनका मनोबल भी टूटता है। भले ही इस पर रोक लगाने के लिए सरकारों ने कई कानून बनाए मगर इन्हें पूरी तरह लागू नहीं किया गया नतीजा लोगों के दबाव के नीचे डाक्टरों के विरुद्ध पुलिस थानों में मामले दर्ज और कई बार तो उन्हें जेल भी हो गई।
दूसरी ओर गर हम आम सरकारी कार्यालयों की बात करें तो वहां भी नेता या सोशल वर्कर कार्यालयों में अधिकारियों, कर्मचारियों के साथ बदतमीजियां और कई बार तो हाथोंपायी तक करने से गुरेज नहीं करते नजर आते हैं। और तो और अपना मतलब निकालने के लिए उक्त घटनाओं का वीडियो, आडियो बना कर सोशल मीडिया पर डालकर दफतरों, कर्मचारियों को बदनाम अलग से करते हैं। कई बार तो यह भी देखा गया है कि नेता अपना नाम चमकाने या लोकप्रिय बनने के लिए बड़े अधिकारियों के साथ भी वाकयुद्ध, बदतमीजी तथा हाथोंपायी करते हैं जिससे सरकारी कार्यालयों का माहौल बद से बदतर हो रहा है।
अब तो यह भी प्रचलन हो चला है कि कई लोगों ने स्वार्थहित के चलते धार्मिक या सामाजिक ग्रुप बना लिए हैं और अपनी काल्पनिक समाजिक-धार्मिक धारणाओं पर आधारित आम लोगों पर धक्काशाही करते हैं और खास किस्म के कपड़े पहनने या खास जगह पर बैठने और जीवन यापन करने को मजबूर करते हैं। और तो और ये लोग किसी धर्म विशेष संबंधी अपने खुद के कानून और कायदे भी घड़ते हैं और उन्हें आम जनता को मानने को मजबूर करते हैं।
आजकल ये सब शहरों में ही नहीं गांवों में भी हो चला है जहां मजदूरों पर पाबंदियां लगायी जाती हैं और कई प्रकार की सामाजिक रोक थोपते हुए उनका सोशन किया जाता है। गांवों की पंचायतों,खाप पंचायतों या धर्म, जाति पर आधारित जत्थेबंदियां बना कर आम जनता का शोषण जारी है। एक समय था जब गांवों में सामाजिक भाइचारा होता था। गांव में एक घर का मेहमान सारे गांव का मेहमान माना जाता था। मजदूर की इज्जत की जाती थी तथा उसका बनता मेहनताना उसे बाइज्जत दिया जाता था मगर आज कल यह इज्जत, कीमतें महज़ दिखावा बन कर रह गये हैं, सब कुछ खत्म होता नजर आ रही है, लोग स्वार्थी हो रहे हैं तथा मतलब निकाल कर एकांकी जीवन जीना चाहते हैं। मैं नहीं कहता कि सामाजिक, धार्मिक पंचायतें, ग्रुप नहीं होने चाहिए मगर किसी को कानून अपने हाथ में लेकर अथवा सोशल पुलिस बना कर जोर जबरदस्ती का अधिकार नहीं होना चाहिए। कानून लागू होना चाहिए जहां शोषण हो रहा हो तथा उसका विरोध भी होना चाहिए मगर उस के लिए लोकतांत्रिक तरीके बने हुए हैं उन्हीं का प्रयोग होना चाहिए न कि स्वयं ही हर कानून को अपने हाथ में ले कर इन्साफ का ढिंढोरा पीटना चाहिए। इस से अराजकता फैल रही है तथा लोक तंत्र खत्म हो रहा है। कानून भी प्रोटेस्ट का अधिकार देता है मगर रूकावट का नहीं। लोग तो हर घटना को जाति-धर्म का नाम देकर सड़कों पर जमे बैठे रहते हैं। जो सही नहीं है, दूसरी ओर सत्ताआसीन सरकारों को भी आम जनता की जायज़ मांगों पर ध्यान देना चाहिए।
अब वक्त आ गया है कि जब जागरूक लोग देश में आवश्यक जागरूकता लायें मगर सोशल पुलिसिंग के जरिये नहीं बल्कि कानून के दायरे में रहते हुए। नेता लोगों को केवल योजनाएं बनानी चाहिएं मगर लागू करने का काम प्रबंधकीय ढांचे को सौंपना चाहिए ताकि कानून व्यवस्था बनी रहे।