डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
अब इसके लिए शिक्षा व्यवस्था को ही दोष दिया जाए, बढ़ती बेरोजगारी या फिर सरकारी नौकरी का मोह माना जाये। राजस्थान के सरकारी दफ्तरों में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के पदों में भर्ती के लिए आवेदन मांगे गये। 20 अप्रेल तक 23 लाख 65 हजार से अधिक आवेदन प्राप्त हो चुके हैं। मजे की बात यह है कि चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के 53,749 पदों के लिए आवेदन के लिए निर्धारित योग्यता दसवीं पास होना है, जबकि इस दसवीं पास के पद के लिए आवेदन करने वालों में बड़ी संख्या में पीएचडी, ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट ही नहीं तकनीकी शिक्षा प्राप्त बीटेक और बीएड जैसी योग्यताधारी शामिल हैं। इसका मतलब यह हुआ कि आईएएस, आईपीएस, प्रोफेसर, शिक्षक या प्रदेशों की सिविल सर्विस व अन्य इसी तरह के उच्च पदों की योग्यता को पूरी करने वाले युवक भी चपरासी की नौकरी के लिए आवेदन करने में किसी तरह का संकोच नहीं कर रहे। यह हालात हमारी संपूर्ण व्यवस्था को प्रश्नों के घेरों में खड़ा कर रही है।
सवाल है कि आखिर हमारी व्यवस्था जा कहां रही है। इससे यह भी साफ हो जाता है कि उच्च शिक्षा प्राप्त चयनित नहीं होते हैं तो सवाल यह उठेगा कि उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले भी चपरासी की परीक्षा उत्तीर्ण नहीं कर सकें। वहीं किसी कारण से शिक्षा पूरी नहीं कर सकने वाले युवक दसवीं की परीक्षा ही पास कर सके हैं। चपरासी के पद के लिए योग्य हैं तो उच्च शिक्षितों, अनुभवियों के सामने उनके लिए तो चयन की संभावना लगभग शून्य की समझी जानी चाहिए। यदि समान योग्यता वाले आवेदन इतनी बड़ी संख्या में होते तो एक अनार सौ बीमार वाली बात तो हो जाती। फिर सीधा-सीधा यही कहा जाता कि रोजगार के अवसर कम हैं पर उच्च अध्ययन प्राप्त युवाओं के चपरासी के पद के लिए आवेदन करना हमारी केवल शिक्षा व्यवस्था ही नहीं अपितु पूरी व्यवस्था पर ही सवाल खड़े कर रहेे हैं। आखिर ऐसा क्या कारण है कि युवाओं को योग्यता के आधार पर नौकरी नहीं मिल पा रही।
इससे यह तो साफ हो जाता है कि कहीं ना कहीं पूरी व्यवस्था में ही दोष है। एक और तो सातवें वेतन आयोग के बाद से युवाओं में सरकारी नौकरी का मोह बढ़ा है। फिर रही सही कसर हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था ने पूरी कर दी है। जब चुनावों में मुख्य मुद्दा रोजगार को लेकर उठाया जाता है। चुनावों में रोजगार या यों कहें कि बेरोजगारी एक प्रमुख मुद्दा होना चाहिए, इससे नकारा नहीं जा सकता है पर केवल सरकारी नौकरी का ही चस्मा दिखाया जाता है तो परिणाम फिर इसी तरह के आते हैं। आजादी के बाद निजी क्षेत्र ने काफी विस्तार किया है। एक समय ऐसा भी रहा है कि जब युवाओं का क्रेज निजी क्षेत्र के प्रति रहता था। निजी क्षेत्र में वेतन-भत्तों के साथ ही सुविधाओं का भी विस्तार था। ऐसा नहीं है कि आज ऐसा नहीं है। आज भी निजी क्षेत्र की अनेकों संस्थाओं में अच्छा पैकेज और सुविधाएं मिलती हैं। युवाओं को विदेश जाने तक के अवसर मिलते हैं। मेडीक्लेम व अन्य सुविधाएं भी आम है। हां परफोरमेंस और टारगेट की बात अवश्य होती है। सरकारी नौकरी के पीछे भागने का कारण एक तो सर्विस को लेकर किसी तरह का तनाव नहीं होना है। यों कहा जा सकता है कि सरकारी नौकरी में जॉब सिक्योरिटी के साथ ही सुविधाओं का अंबार और पेंशन सुविधा के साथ ही जिम्मेदारी का कहीं ना कहीं बोझ नहीं दिखाई देता है। सरकारी नौकरी में तो एक तरह का समझौता हो जाता है कि जो काम के प्रति निष्ठावान है, उसे काम से लाद दिया जाता है और जो काम के प्रति अधिक गंभीर नहीं होते हैं उन्हें कहने को तो नाकारा कह दिया जाता है।
दरअसल इतना कहने भर से उन्हें काम के बोझ की मुक्ति मिल जाती है। यह तस्वीर का एक पहलू है। दूसरा एक बार सरकारी नौकरी में प्रवेश हो गया तो कोई कहने वाला तो होगा नहीं, यदि ज्यादा दिक्कत भी आती हैं तो कहीं से भी सिफारिश कराकर अपना काम चला ही लेंगे। एक बार नौकरी में प्रवेश होने के बाद ओवरएज होने तक प्रतियोगी परीक्षा के नाम पर अप्रत्यक्ष रुप से लाभ उठाया जा सकता है। इससे दो तरह की समस्या उत्पन्न होती है। एक तो वास्तव में उस योग्यताधारी के सामने नौकरी की समस्या जस की तस रह जाती है जो उस पद की योग्यता ही पूरी कर पाता है। दूसरा प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी या फिर शैक्षणिक योग्यता के अनुसार पद नहीं मिलने के कारण सहानुभूति में अन्य कार्य ले लिया जाता है, जिससे दोहरा नुकसान होता है । एक तो उस पद के योग्य लोगों को नुकसान होता है तो दूसरा मूल पर का काम तो बाधित ही रहता है, क्योंकि जिस पद पर चयन हुआ है वह काम तो करना ही नहीं है।
अभी कुछ समय पुरानी ही बात है। लगभग सभी जगह हालात यह है कि नगर निगमों में सफाई कर्मियों की भर्ती में अधिकांश उच्च शिक्षा प्राप्त होने या उच्च वर्ग से जुड़े होने के कारण चयनित होने के बाद उन्हेें सफाई कर्मी का काम तो करना ही नहीं था और किया भी नहीं। उनकी सेवाएं आफिस में क्लर्की के रूप में ली जाने लगीं। इससे अधिकांश नगर निकायों की सफाई व्यवस्था तो प्रभावित हुई ही, साथ ही असली दावेदार तो बेरोजगार ही रह गए। रोजगार के नाम पर ऐसी भर्तियां हुईं जो बोझ बनकर रह गईं। यह वास्तविकता का एक पक्ष है। दूसरा पक्ष तो उच्च योग्यता होने के बाद भी उसके अनुसार नौकरी नहीं मिलना है। इसके लिए किसे दोष दिया जाए। सवाल यह उठता है कि बीटेक करने वाले युवक को इंजीनियरिंग का काम नहीं मिलता है तो फिर उसकी पढ़ाई का मतलब ही क्या है। सवाल यह भी है कि जिस तरह निजी क्षेत्र में नए-नए इंजीनियरिंग कॉलेज, एमबीए कालेज खोले गये और उनमें शिक्षकों की स्थिति, शैक्षणिक स्तर और गुणवत्ता पर ध्यान ही नहीं दिया गया तो केवल डिग्री से क्या होने वाला है।
समस्या इतनी साधारण नहीं है, जितनी इसे समझा जा रहा है। यह बढ़ती बेरोजगारी की समस्या नहीं, अपितु कहीं ना कहीं हमारी संपूर्ण व्यवस्था का ही दोष है। हालात का समग्रता के साथ विश्लेषण करना होगा, नहीं तो चपरासी हो या सफाई कर्मी। अपितु इनसे भी ज्यादा आवेदन आएंगे और भर्ती भी होगी, नौकरी पर भी आयेंगे, वास्तविक युवाओं के लिए रोजगार समस्या ही बना रहेगा। सरकारी खर्चा तो यों ही होता रहेगा पर जिस उद्देश्य से या जिस काम के लिए पदों को भरा जाना है, उसमें हालात नहीं बदलने वाले हैं। फिर यह कहना कि सफाईकर्मी है पर सफाई नहीं हो रही या चपरासी है पर चपरासी के काम करने वालों की कमी है तो हालात ऐसे ही रहने वाले हैं। यह समूची व्यवस्था के सामने चुनौती है और इसका समाधान खोजना ही होगा।